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________________ बारह अंग सूत्र २९३ १४. वस्त्रैषणा १५. पात्रैषणा १६. अवग्रह प्रतिमा १७-२३. सप्त सप्तिका २४. भावना २५. विमुक्ति। इन पच्चीस अध्ययनों में ८५ उद्देशे हैं। यथा - पहले के ७, दूसरे के ६, तीसरे के ४, चौथे के ४, पाँचवें के ६, छठे के ५, सातवें के ८, आठवें के ७, नववें के ४, दसवें के ११, ग्यारहवें के ३, बारहवें के ३, तेरहवें के २, चौदहवें के २, पन्द्रहवें के २, शेष नौ अध्ययन के एक एक, ये सब मिला कर ८५ हुए । इन ८५ उद्देशों के ८५ समुद्देशन (पढे हुए को स्थिर करना) काल हैं। पदों की अपेक्षा नव ब्रह्मचर्य अध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कन्ध में अठारह हजार पद हैं। संख्याता अक्षर हैं, अनन्ता गम यानी अर्थ परिच्छेद हैं, अनन्ता पर्याय यानी अक्षर और अर्थों के पर्यायं हैं, द्वीन्द्रियादि त्रस परित्त हैं अनन्त नहीं, स्थावर जीव अनन्त हैं, श्री तीर्थङ्कर भगवान् के द्वारा कहे हुए ये पदार्थ द्रव्य रूप से शाश्वत हैं, पर्याय रूप से कृत हैं, सूत्र में गूंथे हुए होने से निबद्ध हैं, नियुक्ति, हेतु, उदाहरण द्वारा भली प्रकार कहे गये हैं। आचाराङ्ग सूत्र के ये भाव तीर्थङ्कर भगवान् के द्वारा सामान्य और विशेष रूप से कहे गये हैं, नामादि के द्वारा कथन किये गये हैं, स्वरूप बतलाया गया है। उपमा आदि के द्वारा दिखलाये गये हैं। हेतु दृष्टान्त आदि के द्वारा विशेष रूप से दिखलाये गये हैं। उपनय निगमन के द्वारा अथवा सम्पूर्ण नयों के अभिप्राय से बतलाये गये हैं। इस प्रकार इस आचारांग सूत्र को पढ़ने से आत्मा ज्ञाता - स्वसिद्धान्त का ज्ञाता होता है, विज्ञातास्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त का ज्ञाता होता है। इस प्रकार चरणसत्तरि करणसत्तरि आदि की प्ररूपणा से आचाराङ्ग सूत्र के भाव कहे जाते हैं। इस तरह आचाराङ्ग सूत्र का संक्षिप्त विषय बतलाया गया है। . . . विवेचन - जो.सर्व प्रकार के आरंभ और परिग्रह के त्यागी होते हैं उन्हें निर्ग्रन्थ कहते हैं और जो निरंतर श्रुत अभ्यास तथा तप संयम का पालन करने में श्रम करते रहते हैं, अहें श्रमण कहते हैं। प्रश्न - श्रमण के लिये 'निर्ग्रन्थ' ऐसा विशेषण क्यों दिया गया है? उत्तर - श्रमण पांच प्रकार के कहे गये हैं - शाक्य (बौद्ध मतानुयायी), तापस (अनेक प्रकार के अज्ञान तप करने वाले), गैरिक (गेरुआ - भगवां वस्त्र पहनने वाले), आजीविक (गौशालक मतानुयायी) और निर्ग्रन्थ। जो नौ प्रकार का बाह्य और चौदह प्रकार का आभ्यन्तर दोनों प्रकार के ग्रन्थ (परिग्रह) से रहित हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ कहते हैं। ऐसे निर्ग्रन्थों का यहाँ ग्रहण किया गया है। इसलिये यहाँ श्रमण के साथ निर्ग्रन्थ विशेषण दिया गया है। उन निग्रंथों के आचार विचार आदि का विस्तृत व स्पष्ट वर्णन इस आचाराङ्ग सूत्र में दिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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