SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवायांग सूत्र ईशान कल्प में जघन्य स्थिति एक पल्योपम से कुछ अधिक बताई है । यहाँ पर देव और देवी दोनों की समझनी चाहिए । इसके आगे ईशान कल्प में कितनेक देवों की स्थिति एक सागरोपम की बताई है। यहाँ पर मात्र देवों की ही समझनी चाहिए क्योंकि वहाँ पर देवियों की उत्कृष्ट स्थिति भी ५५ पल्योपम से अधिक नहीं होती है। सागर सुसागर आदि आठ विमानों में देव ही उत्पन्न होते हैं, देवियाँ नहीं। जिन देवों की स्थिति जितने सागरोपम की होती है। वे देव उतने ही पक्ष (पखवाड़ा) से आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोश्वास लेते हैं और उतने ही हजार वर्षों से उनको आहार ग्रहण करने की इच्छा होती है। यह आभोग निर्वर्तित आहार की अपेक्षा से समझना चाहिए। अनाभोग निर्वर्तित आहार तो सब देवों के प्रति समय होता ही रहता है । इच्छा पूर्वक लिया हुआ आहार 'आभोग निर्वर्तित' कहलाता है और बिना इच्छा के रोमों के द्वारा निरन्तर लिया जाने वाला 'आहार अनाभोग निर्वर्तित' कहलाता है । १० भवसिद्धिक - जिन जीवों में मोक्ष जाने की योग्यता हैं उन्हें 'भवसिद्धिक' (भवी, भव्य) कहते हैं। वे जल्दी या देरी से अवश्य मोक्ष जायेंगे । यहाँ पर पहले समवाय से लेकर तीसवें समवाय तक पल्योपम और सागरोपम की स्थिति वाले जीवों का वर्णन किया गया है। साथ ही उन भवसिद्धिक जीवों का भी वर्णन किया है। जो एक भव करके मोक्ष जायेंगे । यावत् तेतीस भव करके मोक्ष जायेंगे। इसमें चारों गति के भवों की संख्या बताई गयी है। किन्तु अन्तिम भव तो मनुष्य का ही करेंगे । क्योंकि मनुष्य गति से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । दूसरी गति से नहीं । अभवसिद्धिक - जिनमें मोक्ष जाने की योग्यता नहीं अर्थात् जो कभी भी मोक्ष नहीं जायेंगे किन्तु चतुर्गति रूप संसार में ही परिभ्रमण करते रहेंगे, उन्हें 'अभवसिद्धिक' (अभवी• अभव्य ) कहते हैं । IIIIIIIIIIIII दूसरा समवाय दो दंडा पण्णत्ता तंजहा - अट्ठादंडे चेव अणट्ठादंडे चेव । दुवे रासी पण्णत्ता तं जहा - जीवरासी चेव अजीवरासी चेव । दुविहे बंधणे पण्णत्ते तंजहा - रागबंधणे चेव दोसबंधणे चेव । पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते । उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते। पुव्वाभद्दवया णक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते । उत्तराभद्दवया णक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं णेरइयाणं दो पलिओवमाइं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy