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समवाय१
प्रकार बतलाई गयी है - "तओ लोगे समा सपक्खि सपडिदिसिं" अर्थात् अप्रतिष्ठान नरक, जम्बूद्वीप और सर्वार्थसिद्ध ये तीन तो दिशा और विदिशा में समान रूप से आये हुए हैं। किन्तु पालक विमान को तो जब इन्द्र कहीं बाहर जाता हो तब वैक्रिय से बनाया जाता है। वह उपरोक्त तीन की तरह समान दिशा और विदिशा में आया हुआ नहीं है। यह सवारी के काम आता है। इसलिये इसको यान (आना-जाना) विमान कहते हैं। - रत्नप्रभा आदि सात नरक हैं। पहली नरक से दूसरी, तीसरी आदि विशेष-विशेष लम्बी और चौड़ी हैं। सातों नरकों के ४९ पाथड़े (प्रस्तट-प्रतर) हैं। प्रत्येक पाथड़े की मोटाई (जाडाई - ऊंचाई) तीन हजार योजन की है। पहली नरक में १३, दूसरी में ११, तीसरी में ९, चौथी में ७, पांचवीं में ५, छठी में ३ और सातवीं में १ पाथड़ा (प्रस्तट) है। जिस प्रकार नरकों में पाथड़े (प्रस्तट) हैं उसी प्रकार देवलोकों में भी पाथड़े हैं। पहला और दूसरा देवलोक बराबरी में आये हुए हैं। उनके (दोनों के) १३ पाथड़े हैं। तीसरा और चौथा देवलोक उन दोनों (पहले और दूसरे) के ऊपर हैं। किन्तु वे दोनों बराबरी में आये हुए हैं। उन दोनों के १२ पाथड़े हैं। पांचवा, छठा, सातवां और आठवां देवलोक एक घड़े के ऊपर दूसरे घड़े की तरह हैं। पांचवें देवलोक के ६, छठे देवलोक के ५, सातवें के ४ और आठवें के ४ पाथड़े हैं। नौवां दसवां दोनों बराबरी में आये हुए हैं, इन दोनों के ४ पाथड़े हैं। ग्यारहवाँ और बारहवाँ दोनों देवलोक बराबरी में आये हुए हैं। इन दोनों के ४ पाथड़े हैं। नव ग्रैवेयक एक घड़े के ऊपर दूसरे घड़े की तरह ऊपरा-ऊपरी आये हुए हैं। इनके ९ पाथड़े हैं। पांच अनुत्तर विमान का एक पाथड़ा है। इस प्रकार इन २६ देवलोकों के ६२ पाथड़े हैं। नरक के ४९ और देवलोक के ६२ पाथड़ों में रहने वाले नैरयिक जीवों की और देवों की अलगअलग अवगाहना और स्थिति टीका में बतलाई गयी है।
जिन तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्यों का आयुष्य करोड़ पूर्व से अधिक होता है, उनको असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कहा गया है। वे युगलिक होते हैं। यहाँ पर वाणव्यन्तर देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम की बतलाई गयी है। वह देवों की ही समझनी चाहिए क्योंकि वाणव्यन्तर देवियों की उत्कृष्ट स्थिति आधे पल्योपम से अधिक नहीं होती है। सौधर्मकल्प में जघन्य स्थिति एक पल्योपम की कही है वह देव और देवियों दोनों की समझनी चाहिए। क्योंकि - सौधर्म देवलोक में एक पल्योपम से कम स्थिति नहीं होती है। इसके आगे जो सौधर्म कल्प में एक सागरोपम की स्थिति बतलाई है। वह केवल देवों की ही समझनी चाहिए। क्योंकि वहाँ देवियों की उत्कृष्ट स्थिति भी पचास पल्योपम से अधिक नहीं होती है।
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