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समवाय७०
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अपना जीवन निर्वाह करेंगे। उनमें धर्म की प्रवृत्ति नहीं होगी अर्थात् धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप आदि में वे कुछ नहीं समझेंगे। इसलिये मेघों की वर्षा के बाद ४९ वें दिन संवत्सरी करने का कहना अयुक्त है क्योंकि वे बिलवासी लोग संवत्सरी में कुछ समझते ही नहीं है। इसीलिये फिर प्रतिवर्ष संवत्सरी मनाना कैसे सम्भव हो सकेगा? क्योंकि उत्सर्पिणी काल का दुषमसुषमा नामक तीसरा आरा लगने पर पहले तीर्थङ्कर की उत्पत्ति होगी । गृहस्थावस्था को त्याग कर जब वे संयम लेकर केवली बनेंगे तब धर्म तीर्थ की स्थापना कर धर्म की प्रवृत्ति चालू करेंगे। अतः दूसरे आरे में संवत्सरी पर्व या अहिंसा दिवस चालू होने का कथन आगम से बाधित है। अतः आगमज्ञ पुरुषों को संवत्सरी के लिये मेघों की युक्ति देना उचित नहीं है।
इस सूत्र की व्याख्या करते हुए टीकाकार ने लिखा है - 'वर्षाणां - चतुर्मास प्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिरात्रे-विंशतिदिवसाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशति दिनेष्वतीतेष्वित्यर्थः, सप्तत्यां च रात्रिदिनेषु शेषेषु भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः, वर्षास्वावासो वर्षावासः - वर्षावस्थानं 'पजोसवेइ' त्ति परिवसति सर्वथा वासं करोति, पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविधवसत्य भावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति, भाद्रपदशुक्ल पञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयमिति।
अर्थ - वर्षाकाल अर्थात् चातुर्मास के एक महीना और बीस रात-दिन बीतने पर तथा सित्तर रात-दिन शेष रहने पर एक जगह सर्वथा निवास करना । वह तिथि है भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी (भादवा सुदी ५)। यदि कदाचित् उस प्रकार अनुकूलतानुसार स्थान नहीं मिले तो पहले के पचास दिनों में तो दूसरी दूसरी जगह में विहार कर जा सकता है। किन्तु योग्य स्थान नहीं मिले पर भादवा सुदी ५ को तो वृक्ष के नीचे भी क्यों न हो साधु-साध्वी को ठहर जाना चाहिये। इसके पहले साधु साध्वी विहार कर सकते हैं।
टीकाकार का यह लिखना आगमानुकूल नहीं है। क्योंकि बृहत्कल्प सूत्र उद्देशक ३ में इस प्रकार विधान किया गया है।
णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा वासावासासु चारए ।
कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु चारए ॥ अर्थात् - साधु-साध्वी को वर्षाकाल अर्थात् चातुर्मास काल (श्रावण, भादवा, आसोज और कार्तिक) में विहार करना नहीं कल्पता है। किन्तु हेमन्तऋतु (मिगसर, पौष, माघ और फाल्गुन) और ग्रीष्मऋतु (चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ) में विहार करना कल्पता है।
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