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________________ समवायांग सूत्र यदि कोई साधु-साध्वी वर्षाकाल के चातुर्मास में विहार करता है तो निशीश सूत्र में उसका प्रायश्चित्त बतलाया है यथा जे भिक्खू पढम- पाउसम्म गामाणुगामं दूहज्जइ, दूइजंतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियंसि गामाणुगामं दूइज्जइ दुइज्जतं वा साइज्जइ ॥ अर्थ - जो साधु अथवा साध्वी प्रथम प्रावृट ऋतु अर्थात् संवत्सरी से पहले ग्रामानुग्राम विहार करता है, दूसरों को करवाता है तथा करने वाला का अनुमोदन करता है उसे गुरु. चौमासी (१२० उपवास) प्रायश्चित्त आता है। २२८ - जो साधु साध्वी संवत्सरी के बाद अर्थात् संवत्सरी के बाद के ७० दिनों में ग्रामानुग्राम विहार करता है, दूसरों को करवाता है और करने वालों का अनुमोदन करता है तो उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। उपरोक्त विधान से यह स्पष्ट है कि वर्षावास के चार महीने साधु साध्वी को एक ही जगह स्थिर रहना चाहिये । इस नियम का उल्लंघन करने वाले को प्रायश्चित्त आता है। ऐसी स्थिति में भादवा सुदी पञ्चमी तक विहार करने का टीकाकार का कथन आगम से विपरीत जाता है। योग्य स्थान न मिलने का कथन भी उचित प्रतीत नहीं होता है। फिर पञ्चमी के दिन वृक्ष के नीचे ठहरने का कथन भी युक्ति संगत नहीं है। क्योंकि वृक्ष के नीचे ठहरने का स्थान क्या योग्य स्थान है ? ऊपर से पड़ती हुई वर्षा को क्या वृक्ष रोक सकता है ? तथा वृक्ष के नीचे बहने वाले पानी में साधु-साध्वी खड़े रहना, बैठना सोना आहार पानी करना आदि क्रियाएँ कर सकता है? वृक्ष के नीचे तो दूसरे दूसरे लोग भी आकर ठहर सकते हैं, उनके सामने आहार पानी करना, रात्रि विश्राम करना, लघुनीत बड़ी नीत आदि करना क्या मुनि को कल्प सकता है? इसलिये चौमासे के पीछले सित्तर दिन भी वृक्ष के नीचे ठहरने का कथन युक्तिसंगत नहीं है। श्रावण और भादवा ये दो महीने वर्षा के मुख्य महीने हैं। उन दिनों में मुनि का विहार करना जीवों की यतना के लिये क्या उचित कहा जा सकता है ? लोक व्यवहार भी दूषित होता है। अन्य मतावलम्बियों का कथन होगा कि जैन के साधु-साध्वी चातुर्मास में भी विहार करते रहते हैं। अतः संवत्सरी के पहले पचास दिन विहार करते रहने का टीकाकार का कथन आगम से सर्वथा विपरीत है। यहाँ टीकाकार ने "पज्जोसवेइ' ति परिवसति सर्वथा वासं करोति" अर्थात् एक जगह निवास करता है' ऐसा जो अर्थ किया है वह आगमानुकूल नहीं है। क्योंकि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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