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________________ ७४ उत्तराध्ययन सूत्र - चौबीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से यतना चार प्रकार की कही गई है। उनका मैं कीर्तन-वर्णन करूँगा। तुम ध्यानपूर्वक सुनो दव्वओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खेत्तओ। कालओ जाव रीइजा, उवउत्ते य भावओ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - चक्खुसा - आंखों से, पेहे - देखकर, जुगमित्तं - युगमात्र - शरीर या गाड़ी के जुए जितना लम्बा क्षेत्र-चार हाथ प्रमाण, रीइज्जा - चले, उवउत्ते - उपयोगपूर्वक। भावार्थ - द्रव्य की अपेक्षा आँखों से जीवादि द्रव्यों को देख कर चले। यह 'द्रव्य उपयोग' कहलाता है और क्षेत्र से युगप्रमाण (चार हाथ भूमि) आगे देख कर चले। यह क्षेत्र उपयोग' कहलाता है। काल से जब तक चले अर्थात् जब तक दिन रहे तब तक यतनापूर्वक चले। यह ‘काल उपयोग' कहलाता है और भाव से उपयोग पूर्वक चले अर्थात् चलते समय अपने उपयोग को ठीक रखना ‘भाव उपयोग' कहलाता है। इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते रियं रिए॥॥ कठिन शब्दार्थ - इंदियत्थे - इन्द्रियार्थ - इन्द्रियों के विषय, विवजित्ता - छोड़ कर, सज्झायं - स्वाध्याय, तम्मुत्ती - तन्मूर्ति - उसी में तन्मय होकर, तप्पुरस्कारे - उसी को सम्मुख (आगे) रख कर, रियं रिए - ईर्या-गमन करे। भावार्थ - पाँच इन्द्रियों के अर्थों - विषयों को और पाँच प्रकार की स्वाध्याय को वर्ज कर ईर्यासमिति में अपने शरीर को लगा कर तथा ईर्यासमिति को ही प्रधान मान कर साधु उपयोगपूर्वक ईर्यासमिति से चले अर्थात् चलते समय शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श इन पाँच इन्द्रियों के विषय की ओर ध्यान न देवे और चलते समय वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा रूप पाँच प्रकार की स्वाध्याय में से कोई भी स्वाध्याय नहीं करे, क्योंकि इनमें ध्यान देने से जीवों की यतना भली प्रकार नहीं हो सकती, जिससे जीव-विराधना होने की सम्भावना रहती है। इसलिए चलते समय चलने की क्रिया की ओर ही उपयोग रखे। विवेचन - ईर्या समिति के चार कारण बतलाये हैं - आलम्बन, काल, मार्ग और यतना। इनमें से यतना के फिर चार भेद किये हैं - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव। द्रव्य की अपेक्षा यतनागंतव्य मार्ग को देखकर के चलना। क्षेत्र से - धूसरा परिमाण अर्थात् चार हाथ जमीन आगे देख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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