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________________ प्रवचन-माता - भाषा समिति का स्वरूप 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कर चलना। काल से - दिन में देख कर चलना। रात्रि में विहारादि नहीं करना। किन्तु जहाँ रात्रि विश्राम किया है वहाँ लघुशंका आदि के लिए जाना पड़े तो शरीर को वस्त्र से अच्छी तरह आच्छादित कर रजोहरण से भूमि को पूंज कर जावे और परठ कर वापिस पूंजता हुआ अपने स्थान पर लौट जाय। भाव से उपयोग पूर्वक चले। आलम्बन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि और रक्षा हो तो चले, यह तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा है। इसके २७ भंग बनते हैं-यथा १. ज्ञान २. दर्शन ३. चारित्र ४. ज्ञान दर्शन ५. ज्ञान चारित्र ६. दर्शन चारित्र ७. ज्ञान दर्शन चारित्र ८. आचार्य महाराज आदि की वैयावृत्य के लिए तथा ९. आचार्य महाराज आदि जहाँ जाने की आज्ञा प्रदान करे वहाँ काल, मार्ग और यतनापूर्वक जावे इन नौ भङ्गों को मन, वचन और काया इन तीन से गुणा (६४३-२७) करने पर २७ भंग बन जाते हैं। __दूसरी तरह से २७ भंग इस प्रकार होते हैं। १. ज्ञान २. दर्शन ३. चारित्र ४. ज्ञान दर्शन ५. ज्ञान चारित्र ६. दर्शन चारित्र ७. ज्ञान दर्शन चारित्र ८. काल में चलना ६. अकाल में नहीं चलना १०. मार्ग में चलना ११. उन्मार्ग में नहीं चलना १५. शब्द १६. रूप १७. गंध १८. रस १६. स्पर्श २०. वाचना २१. पृच्छना २२. परिवर्तना २३. अनुप्रेक्षा २४. धर्म-कथा इन दश बोलों को वर्ज कर चलना २५. तम्मुत्ती (तन्मूर्ति) अपने शरीर को ईर्या समिति में ही लगाना २६. तप्पुरक्कारे (तत्पुरस्कार) ईर्या समिति को ही प्रधानता देकर चले अर्थात् शरीर और मन को एकाग्र कर चले २७. उपयोग सहित चलना। . भाषा समिति का स्वरूप कोहे माणे या मायाए, लोभे य उवउत्तया। हासे भए मोहरिए, विकहासु तहेव य॥६॥ एयाइं अट्ठ ठाणाई, परिवजित्तु संजए। असावजं मियं काले, भासं भासिज पण्णवं॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - उवउत्तया - उपयुक्तता (उपयोग युक्तता), हासे - हास्य, भए - भय, मोहरिए - मौखर्य (वाचालता) में, विकहासु - विकथाओं में, अट्ठठाणाई - आठ स्थानों को, परिवजित्तु - छोड़ कर, असावजं - असावद्य-निरवद्य-निर्दोष, मियं - मित, भासं - भाषा, भासिज - बोले, पण्णवं - प्रज्ञावान्। - हार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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