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________________ ७६. .. उत्तराध्ययन सूत्र - चौबीसवाँ अध्ययन cooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooom भावार्थ - अब भाषासमिति के विषय में कहते हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ, हास्य, भय, मौखर्य (वाचालता) और विकथाओं में उपयुक्त रहना इन आठ स्थानों (दोषों) को त्याग कर बुद्धिमान् संयत-साधु समय पर निरवद्य और परिमित भाषा बोले अर्थात् उपरोक्त क्रोधादि आठ दोषों को छोड़ कर समय पर हित-मित और पापरहित निर्दोष भाषा बोले। - विवेचन - मौखर्य - मुखरता का अर्थ है - दूसरे की निंदा, चुगली आदि करना यह दोष भी सत्य का विघात्क है। मुखरताप्रिय जीव अपने संभाषण में असत्य का अधिक व्यवहार करते हैं। यहाँ पर 'उपयुक्तता' से यह अभिप्रेत है कि कदाचित् क्रोधादि के कारण संभाषण में असत्य के सम्पर्क की संभावना हो जाय तो विवेकशील आत्मा उस पर अवश्य विचार करे और उससे बचने का प्रयत्न करे। कारण कि असत्य का प्रयोग प्रायः अनुपयुक्त दशा में ही होता है। संयमी साधु क्रोध आदि ८ स्थानों को छोड़ कर यानी क्रोधादि के वशीभूत न होकर भाषा समिति के संरक्षण का ध्यान रखते हुए हित, मित, निर्दोष एवं समयानुकूल भाषा का ही प्रयोग करे। यही दोनों गाथाओं का अभिप्राय है। . - एषणा समिति गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणा य जा। आहारोवहि-सेजाए, एए तिण्णि विसोहए॥११॥ कठिन शब्दार्थ - गवेसणाए - गवेषणा में, गहणे - ग्रहणैषणा में, परिभोगेसणा - परिभोगैषणा, आहारोवहि - आहार उपधि, सेज्जाए - शय्या, विसोहए - परिशोधन करे। भावार्थ - अब एषणासमिति के विषय में कहते हैं - आहार-उपधि और शय्या की गवेषणसणा, ग्रहणैषणा तथा परिभोगैषणा (ग्रासैषणा) ये प्रत्येक की जो तीन-तीन एषणाएँ हैं उनकी विशुद्धि को अर्थात् गवेषण, ग्रहण और ग्रास (परिभोग) सम्बन्धी दोषों से अदूषित अतएव विशुद्ध आहार, पानी, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि उपधि और शय्या, पाट, पाटलादि का ग्रहण करना एषणासमिति है। विवेचन - एषणा का अर्थ है - उपयोग पूर्वक अन्वेषण करना। पदार्थों को देखने, ग्रहण करने एवं उपभोग करने में शास्त्रीय विधि के अनुसार निर्दोषता का विचार करके सम्यग् प्रवृत्ति करना ही एषणा समिति है। गवेषणा आदि शब्दों का विशेषार्थ इस प्रकार है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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