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________________ प्रवचन-माता - एषणा समिति ७७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 १. गवेषणा - आहारादि के निमित्त गोचरी में विचार पूर्वक प्रवृत्त होना। भिक्षा ग्रहण करने से पूर्व उद्गम और उत्पादन के दोषों का परिशोधन करना गवेषणा के ही अंतर्गत है। २. ग्रहणैषणा - विचार पूर्वक निर्दोष आहार आदि का ग्रहण करना। इसके अंतर्गत शंकादि दस दोषों की शुद्धि आवश्यक है। ३. परिभोगैषणा - वस्त्र, पात्र, पिण्ड, शय्या तथा आहार आदि का उपभोग करते समय निंदा स्तुति आदि दोषों से बचना। उग्गमुप्पायणं पढमे, बीए सोहेज एसणं। परिभोयम्मि चउक्कं, विसोहेज्ज जयं जई॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - उग्गमुप्पायणं - उद्गम और उत्पादन के दोषों का, सोहेज - शोधन करे, एसणं - एषणा का, परिभोयम्मि - परिभोगैषणा में, चउक्कं - दोष चतुष्क का, विसोहेज्ज - विशोधन करे, जयं जई - यतनाशील यति। भावार्थ - यतनावान् यति-साधु पहली गवेषणैषणा में उद्गम के १६ और उत्पादन के १६ दोषों की और दूसरी ग्रहणैषणा में एषणा के शंकितादि दस दोषों की शुद्धि करे तथा परिभोगैषणा में संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण इन चार मांडला के दोषों की विशुद्धि करे तथा आहार, शय्या, वस्त्र और पात्र इन चारों को उद्गमादि के दोष टाल कर भोगे। विवेचन - भिक्षाजीवी साधु उद्गम, उत्पादना आदि के ४२ दोषों एवं मांडला के ५ दोषों, इस प्रकार ४७ दोषों की शुद्धि करके आहारादि का अन्वेषण, ग्रहण और परिभोग करे, यही एषणा' समिति का स्वरूप है। - मोहनीय कर्म के अन्तर्गत होने के कारण अंगार और धूम इन दोनों दोषों को यहाँ एक ही गिना गया है। इन दोनों को पृथक् गिनने से मांडला के पांच दोष होते हैं। यथा - १. संयोजना २. प्रमाण ३. अंगार ४. धूम ५. कारण। साधु-साध्वी अपने स्थान पर एक जगह बैठ कर आहार करते हैं उसको मंडल (माण्डला) कहते हैं। आहार करते समय जो दोष लगते हैं उनको मांडला के दोष कहते हैं। ४२ दोष टाल कर जो शुद्ध आहार मिला है उनको इन पांच दोषों से दूषित नहीं करना चाहिए। आहार की तरह शय्या-उपाश्रय, वस्त्र और पात्र भी ४२ दोष टालकर ही काम में लेना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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