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________________ ६२ उत्तराध्ययन सूत्र - तेईसवाँ अध्ययन commmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmsson O OOOOOOOOOOOOm कठिन शब्दार्थ - धम्मो दीवो - धर्म रूपी द्वीप। भावार्थ - जरा (बुढ़ापा) और मरण के वेग से प्रवाहित होते हुए प्राणियों के लिए धर्म रूपी द्वीप है वह गति रूप है और उत्तम शरण रूप है तथा प्रतिष्ठा रूप है अर्थात् धर्म ही एक ऐसा द्वीप है जिसका आश्रय ले कर प्राणी संसार रूपी समुद्र से पार हो सकते हैं। विवेचन - इसका तात्पर्य यह है कि जैसे महाद्वीप में जल के वेग का प्रवेश नहीं होता, तद्वत् श्रुत और चारित्र रूप महाद्वीप में जन्म, जरा और मृत्यु आदि भी प्रविष्ट नहीं हो सकते। कारण मोक्ष में इनका सर्वथा अभाव है। इसलिए संसार रूप समुद्र के जरा-मरणादि रूप जल प्रवाह में बहते हुए प्राणियों को इसी धर्म रूप महाद्वीप का सहारा है और इसी की शरण में जाना परमोत्तम है। साहु गोयम! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा!॥६६॥ भावार्थ - हे गौतम! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। तुमने मेरा यह संशय भी दूर कर दिया है। अब मेरा एक अन्य भी संशय-प्रश्न है। हे गौतम! मुझे उसके विषय में भी कुछ कहें अर्थात् उसका भी समाधान करें। केशी श्वमण की दसवीं जिज्ञासा अण्णवंसि महोहंसि, णावा विपरिधावइ। जंसि गोयम आरूढो, कहं पारं गमिस्ससि?॥७०॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णवंसि - अर्णव-समुद्र में, महोहंसि - महाओघ-प्रवाह वाले, णावा - नाव, कहं - कैसे, पारं - पार, गमिस्ससि - जा सकोगे, आरूढो - चढ़े हुए। भावार्थ - दसवाँ प्रश्न - महाओघ अर्थात् महाप्रवाह वाले अर्णव-समुद्र में एक नौका विपरीत दिशा में - इधर-उधर जा रही है। हे गौतम! उस पर चढ़े हुए आप कैसे पार जाओगे? गौतम का समाधान जा उ अस्साविणी णावा, ण सा पारस्स गामिणी। जा णिरस्साविणी णावा, सा उ पारस्स गामिणी॥७१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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