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केशि - गौतमीय - केशीश्रमण की द्वितीय जिज्ञासा
विवेचन - केशीकुमार श्रमण ने जब अपने प्रथम प्रश्न का युक्तियुक्त समाधान प्राप्त कर लिया, तब उन्होंने गौतमस्वामी के प्रति अपने कृतज्ञतासूचक उद्गार प्रकट किये।
यहाँ पर इतना ध्यान रहे कि केशी कुमार के द्वारा उद्भावन किये गये संशय का गौतम स्वामी के द्वारा निराकरण करना तथा अन्य संशय के निराकरणार्थ प्रस्ताव करना इत्यादि प्रश्नोत्तर रूप जितना भी संदर्भ है वह सब नाम मात्र इन दोनों महापुरुषों के शिष्य परिवार के हृदय में उत्पन्न हुए संदेहों की निवृत्ति के लिए ही है। अन्यथा केशीकुमार के हृदय में तो इस प्रकार की न कोई शंका थी और न उसकी निवृत्ति के लिए गौतम स्वामी का प्रयास था। कारण कि मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञान वालों में इस प्रकार के संशय का अभाव होता है। अतः यह प्रश्नोत्तर रूप समग्र संदर्भ स्व शिष्यों तथा सभा में उपस्थित हुए अन्य भाविक सद्गृहस्थों के संशयों को दूर करने के लिए प्रस्तावित किया गया है तथा इस गाथा में अभिमान से रहित होकर सत्य के, ग्रहण करने का जो उपदेश ध्वनित किया गया है उसका अनुसरण प्रत्येक जिज्ञासु को करना चाहिए ।
केशी श्रमण की द्वितीय जिज्ञासा
अलगोय जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महाजसा ॥ २६ ॥ एगकज्जपवण्णाणं, विसेसे किं णु कारणं ।
लिंगे दुविहे महावि! कहं विप्पच्चओ ण ते ॥ ३० ॥ कठिन शब्दार्थ - लिंगे - लिंग - बाह्यवेश के ।
भावार्थ - दूसरा प्रश्न महायशस्वी महामुनीश्वर भगवान् वर्द्धमान स्वामी ने जो यह अचेलक (परिमाणोपेत श्वेत तथा अल्प मूल्य वाले वस्त्र रखने) रूप धर्म कहा है और भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी ने जो यह मानोपेत-रहित, विशिष्ट एवं बहुमूल्य वस्त्र रख सकने रूप धर्म कहा है तो एक ही कार्य के लिए अर्थात् मोक्ष प्राप्ति रूप कार्य के लिए प्रवृत्ति करने वालों में परस्पर विशेषता होने में क्या कारण है? हे मेधाविन्! बाह्य वेश के दो भेद हो जाने पर क्या आपके मन में विप्रत्यय-संदेह उत्पन्न नहीं होता है? जब दोनों बातें सर्वज्ञ कथित हैं तो फिर मतभेद का क्या कारण है ?
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