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________________ ४८ उत्तराध्ययन सूत्र - तेईसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शीघ्रता से पदार्थों के अवधारण करने में समर्थ नहीं होती। अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं, वे किसी बात को सरलतापूर्वक समझते नहीं और समझ जाने पर भी उसका सरलता से पालन नहीं करते, क्योंकि इस काल के जीव कुतर्क उत्पन्न करने में बड़े कुशल होते हैं। मध्य के बाईस तीर्थंकरों के मुनियों को शिक्षित करना या साधु-कल्प का बोध देना और उनके द्वारा उसका पालन किया जाना ये दोनों बातें सुलभ होती हैं, इसलिए इनके लिए चार महाव्रतों का विधान किया गया है और प्रथम तीर्थंकर तथा अन्तिम तीर्थंकर के मुनियों के लिए पाँच महाव्रतों . का विधान किया गया है। विवेचन - प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय पांच महाव्रत इस प्रकार होते हैं - सर्वथा प्रकार से हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह का तीन करण तीन योग से त्याग करना। बीच के बाईस तीर्थंकर तथा महाविदेह के सभी तीर्थंकरों के साधुओं के चार याम धर्म इस प्रकार होते हैं - सर्वथा प्रकार से हिंसा, झूठ, चोरी और बहिद्धादान का तीन करण तीन योग से त्याग होता है। 'बहिद्धादान' का अर्थ है - बहिद्धा - अर्थात् बाहर की वस्तु को, आदान-अर्थात् लेना। विषय भोग की सामग्री (स्त्री आदि) तथा धन-धान्य सोना-चांदी आदि सब बाहर की वस्तु हैं। इसलिए 'बहिद्धादान' शब्द में दोनों बाहरी वस्तु का ग्रहण कर लिया गया है। इसलिए पांच महाव्रत रूप धर्म और चतुर्याम धर्म का अर्थ एक ही है। केवल शब्दों का फर्क है। जैसे कि - कोई ६० कहे और कोई अनपढ़ व्यक्ति तीन बीसी कहे तो समझदार व्यक्ति के लिए दोनों का अर्थ एक ही है ६०। २०+२०+२०६०। इस तरह व्रतों के विषय में भी समझना चाहिये। कृतज्ञता प्रकाशन साहु गोयम! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा!॥२८॥ कठिन शब्दार्थ - साहु - साधु (श्रेष्ठ), पण्णा - प्रज्ञा-बुद्धि, छिण्णो - छिन्न हो गया है, मे - मेरा, संसओ - संशय, अण्णो वि - अन्य भी, कहसु - कहें। भावार्थ - हे गौतम! आपकी प्रज्ञा-बुद्धि साधु-श्रेष्ठ है। आपनें मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है इसलिए हे गौतम! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो दूसरा संशय है उसे भी दूर कीजिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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