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उत्तराध्ययन सूत्र - तेईसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - यद्यपि मूलपाठ में केवल, अवधि और श्रुतज्ञान का ही उल्लेख किया है, मतिज्ञान का उसमें निर्देश नहीं किया, परन्तु नन्दी सिद्धान्त का कथन है कि जहाँ पर श्रुतज्ञान होता है, वहाँ पर मतिज्ञान अवश्यमेव होता है और जहाँ पर मतिज्ञान है, वहाँ पर श्रुतज्ञान भी है। इसलिए एक का निर्देश किया है। जैसे पुत्र का नाम निर्देश करने से पिता का ज्ञान भी साथ ही हो जाता है, इसी प्रकार एक के ग्रहण से दोनों का ग्रहण कर लेना शास्त्रकार को सम्मत है।
तिंदुयं णाम उजाणं, तम्मि णगरमंडले। फासए सिज्ज-संथारे, तत्थ वासमुवागए॥४॥
कठिन शब्दार्थ - तिंदुयं णाम - तिन्दुक नाम का, उज्जाणं - उद्यान, णगरमंडले - नगरी के बहिस्थ (पार्श्व) भाग में, फासुए - प्रासुक, सिज्जसंथारे - शय्या संस्तारक, वासंनिवास के लिये, उवागए - आये।
भावार्थ - उस श्रावस्ती नगरी के समीप तिन्दुक नाम का एक उद्यान था। वहाँ प्रासुक (जीव-रहित) संस्तारक युक्त स्थान में वे केशीकुमार श्रमण ठहरे।
. विवेचन - प्रस्तुत गाथा में 'तम्मि णगरमंडले' इस वाक्य में 'नयरी' के स्थान में जो लिंग का व्यत्यय है वह आर्ष वाक्य होने से किया गया है। अन्यथा स्त्रीलिंग का निर्देश होना चाहिए था तथा 'मंडल' शब्द यहाँ पर सीमा का वाचक है। जिसका तात्पर्य यह निकलता है कि वह उद्यान श्रावस्ती के अति दूर व अति निकट नहीं, किन्तु नगरी के समीपवर्ती था।
गौतमस्वामी का श्रावस्ती पदार्पण अह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे। भगवं वद्धमाणित्ति, सव्वलोगम्मि विस्सुए॥५॥
कठिन शब्दार्थ - भगवं - भगवान्, वद्धमाणित्ति - वर्द्धमान स्वामी, सव्वलोगम्मि - समस्त लोक में,, विस्सुए - विश्रुत - विख्यात।
भावार्थ - अथ उसी समय धर्म-तीर्थ की स्थापना करने वाले, राग-द्वेष को जीतने वाले भगवान् वर्द्धमान स्वामी समस्त लोक (संसार) में विश्रुत-सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर रूप से प्रसिद्ध थे। • तस्स लोगपईवस्स, आसी सीसे महायसे। . __ भगवं गोयमे णाम, विजाचरण-पारगे॥६॥
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