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________________ २६ उत्तराध्ययन सूत्र - बाईसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जीवियं - जीवन को, परिच्चत्ता - परित्यक्ता, सेयं - श्रेयस्कर, पव्वइउं - दीक्षा लेना ही, मम - मेरे लिए। ___भावार्थ - राजीमती विचार करने लगी कि मेरे जीवन को धिक्कार है जो मैं उन भगवान् नेमिनाथ द्वारा त्याग दी गई हूँ। अब तो मेरे लिए दीक्षा लेना ही श्रेष्ठ है। राजीमती द्वारा केशलोच अह सा भमरसण्णिभे, कुच्चफणगप्पसाहिए। सयमेव लुंचइ केसे, धिइमंता ववस्सिया॥३०॥ कठिन शब्दार्थ - भमरसण्णिभे - भौरे के समान काले, कुच्चफणगप्पसाहिए - कूर्च (ब्रुश) और कंघी से प्रसाधित, लुंचइ - लुंचन किया, केसे - केशों को, धिइमंता - धैर्यशाली, ववस्सिया - कृत निश्चयी। भावार्थ - इसके बाद धैर्य वाली संयम के लिए उद्यत हुई उस राजीमती ने भ्रमर सरीखे काले कूर्च (बाँस से निर्मित कूची) और कंघी से संवारे हुए केशों का स्वयमेव लोच कर डाला। राजीमती को आशीर्वाद . वासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइंदियं। संसारसायरं घोरं, तर कण्णे लहं लहं॥३१॥ कठिन शब्दार्थ - लुत्तकेसं - केशलोच की हुई, संसारसायरं - संसार समुद्र को, घोरं - घोर, तर - पार कर, कण्णे - हे कन्ये! लहुं-लहुं - शीघ्रातिशीघ्र। ___ भावार्थ - श्रीकृष्ण वासुदेव और बलदेव तथा समुद्रविजय आदि केशों का लोच की हुई जितेन्द्रिय उस राजीमती से कहने लगे कि हे कन्ये! तू बहुत शीघ्र इस घोर संसारसागर को पार कर (मोक्ष प्राप्त कर)। बहुक्षुता राजीमती सा पव्वइया संती, पव्वावेसी तहिं बहुं। सयणं परियणं चेव, सीलवंता बहुस्सुया॥३२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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