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२. वाणव्यंतर देव
यक्ष, रक्खसा
पिसाय भूया जक्खा य, रक्खसा किण्णरा किंपुरिसा । महोरगा य गंधव्वा, अट्ठविहा वाणमंतरा॥२१० ॥ कठिन शब्दार्थ पिसाय - पिशाच, भूया भूत, जक्खा राक्षस, किण्णरा - किन्नर, किं पुरिसा - किंपुरुष, महोरगा - महोरग, गंधव्वा - गंधर्व । भावार्थ पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व ये आठ प्रकार के वाणव्यंतर देव कहे गये हैं । विवेचन पण्णवणा सूत्र और उववाइय सूत्र में वाणव्यंतरों के और भी आठ भेद दिये हैं। यथा १. आणपण्णे २. पाणपणे ३. इसिवाई ( ऋषिवादी) ४. भूयवाई (भूतवादी) ५. कन्दे ६. महाकन्दे ७. कुह्माण्ड ( कूष्माण्ड ) ८. पयदेव (प्रेतदेव) अथवा पयंगदेव (पतंगदेव ) । अल्प ऋद्धि वाले हैं। इसलिए इनकी यहाँ पर अलग विवक्षा नहीं की गई है। इन्हीं में इनका अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए।
प्रश्न :- व्यंतर किसे कहते हैं ?
उत्तर वि आकाश। जिनका अन्तर अर्थात् अवकाश (आश्रय ) है उन्हें व्यन्तर कहते हैं अथवा विविध प्रकार के भवन, नगर तथा आवास रूप जिनका आश्रय है अथवा 'विगतमन्तरं मनुष्येभ्यो येषां तै व्यन्तराः' अर्थात् जिन देवों का मनुष्यों से अन्तर व्यवधान नहीं हैं उन्हें व्यंतर कहते हैं। क्योंकि बहुत से व्यंतर देव चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की नौकर की तरह सेवा करते हैं। इसलिए मनुष्यों से उनका भेद नहीं है अथवा 'विविधमन्तरमाश्रय रूपं येषां ते व्यन्तराः अर्थात् पर्वत गुफा वनखण्ड आदि जिनके विविध प्रकार के अन्तर अर्थात् आश्रय हैं वे व्यन्तर कहलाते हैं। सूत्रों में वाणमन्तर या वाणव्यन्तर पाठ भी आता है। 'वनानामन्तरेषु भवाः वानमन्तराः' अर्थात् वनों के अन्तर में (मध्य में) रहने वाले देव । इनके आठ भेद पिशाच आदि गाथा में बतला दिये हैं।
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जीवाजीव विभक्ति - देवों का वर्णन वाणव्यंतर देव
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गंधर्व जाति के व्यंतर संगीत से बहुत प्रीति करते हैं। वे भी आठ प्रकार के हैं। जो कि आणपन्निक आदि ऊपर बता दिये गये हैं। ये देव बहुत चपल, चंचल चित्त वाले तथा हास्य और क्रीड़ा को पसन्द करने वाले होते हैं। सदा विविध प्रकार के आभूषणों से अपने शरीर को सिंगारने में अथवा विविध क्रीड़ाओं में लगे रहते हैं।
प्रश्न - वाणव्यंतर कहाँ रहते हैं?
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