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जीवाजीव विभक्ति - तेइन्द्रिय-त्रस का स्वरूप
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भावार्थ - कुन्थुवा, पिपीलिका (कीड़ी), उइंस (चांचड़), उत्कलिक, उदई, तृणहारक, काष्ठहारक, मालूक, पत्रहारक, कपास के बीज में उत्पन्न होने वाले जीव, तिन्दुक, त्रपूष मिंजक, सदावरी, गुल्मी (कानखजूरा), इन्द्रकायिक और इन्द्रगोप आदि इस प्रकार और भी अनेक प्रकार के तेइन्द्रिय जीव जानने चाहिए। वे सब लोक के एक देश में कहे गये हैं, किन्तु सर्वत्र नहीं है। - विवेचन - उपरोक्त नामों में से कुछ नाम प्रसिद्ध हैं, कुछ नाम अप्रसिद्ध हैं।
संतई पप्पणाइया, अप्पज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साइया, सप्पजवसिया वि य॥१४१॥
भावार्थ - ये सभी तेइन्द्रिय जीव सन्तति की अपेक्षा अनादि - जिनकी आदि नहीं और अपर्यवसित - अनन्त हैं। स्थिति की अपेक्षा सादि - आदि सहित और सान्त - अन्त सहित हैं।
एगणपण्णहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया। . तेइंदिय-आउठिई, अंतोमुहत्तं जहणिया॥१४२॥
कठिन शब्दार्थ - एगूणपण्णहोरत्ता - उनपचास अहोरात्र की, तेइंदिय आउठिई - तेइन्द्रिय जीवों की आयु स्थिति।..
भावार्थ - तेइन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु - स्थिति उनपचास अहोरात्र (रात्रि-दिन) है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की कही गई है।
संखिज्जकालमुक्कोसा, अंतोमुहत्तं जहण्णिया। तेइंदिय-कायठिई, तं कायं तु अमुंचओ॥१४३॥
भावार्थ - उस काया को न छोड़ने वाले तेइन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात काल (संख्याता हजारों वर्षों) की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है।
अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहण्णयं। तेइंदिय-जीवाणं, अंतरं तु वियाहियं॥१४४॥
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