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________________ hili lilililih ३८२ उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - बेइन्द्रिय जीवों की यह कायस्थिति है। मूल में 'संखिजकालं' दिया है, जिसका अर्थ संख्याता हजारों वर्ष समझना चाहिए। बेइन्द्रिय जीवं की एक भव की जो उत्कृष्ट स्थिति (बारह वर्ष) होती है उसको आठ से गुणा करने पर जो काल मान होता है, उतने वर्षों की कायस्थिति “संखिज्जकालं" शब्द से समझनी चाहिए। इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों की कायस्थिति भी अपनी-अपनी उत्कृष्ट भव स्थिति से आठ-आठ गुणी समझनी चाहिए। अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहण्णय। बेइंदिय-जीवाणं, अंतरं च वियाहियं ॥१३५॥ भावार्थ - द्वीन्द्रिय जीवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का कहा गया है। एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस-फासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥१३६॥ भावार्थ - इन द्वीन्द्रिय जीवों के वर्ण की, गन्ध की, रस की, स्पर्श की और संस्थान की अपेक्षा सहस्रश - हजारों विधान - भेद होते हैं। तेइन्द्रिय-वस का स्वरूप , तेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे॥१३७॥ भावार्थ - तेइन्द्रिय जो जीव हैं, वे पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के कहे गये हैं। अब मुझ से उनके भेदों को सुनो। कुंथुपिवीलिउडुंसा, उक्कलुद्देहिया तहा। तणहारा कट्ठहारा य, मालूगा पत्तहारगा॥१३८॥ कप्पासट्टिम्मिजाया, तिंदुगा तउसमिंजगा। सदावरी य गुम्मी य, बोधव्वा इंदगाइया॥१३॥ इंदगोवगमाइया, णेगहा एवमायओ। ' लोगेगदेसे ते सव्वे, ण सव्वत्थ वियाहिया॥१४०॥ कठिन शब्दार्थ - कुंथु - कुन्थुआ, पिवीलि - पिपीलिका-चींटी, उडंसा - उइंस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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