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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन सौगंधिक रत्न ३४. चन्द्रप्रभ रत्न, वैडूर्य रत्न ३५. जलकान्त मणि और ३६. सूर्यकान्त मणि । ये खर पृथ्वीकाय के ३६ भेद जानने चाहिए। विवेचन - यद्यपि यहाँ मणियों के १८ भेद बताये हैं, किन्तु उनका एक-दूसरे में अन्तर्भाव करके यहाँ १४ भेद ही गिनना चाहिए। ऐसा करने से ही ३६ भेदों की संख्या ठीक हो सकती है, अन्यथा ४० भेद हो जाते हैं। ३६८ एए खरपुढवीए, भेया छत्तीसमाहिया । एगविहमणाणत्ता, सुहमा तत्थ वियाहिया ॥ ७८ ॥ कठिन शब्दार्थ - एगविहं - एक प्रकार की, अणाणत्ता अनानात्व - भेद रहित । भावार्थ ये खर पृथ्वी के छत्तीस भेद कहे गये हैं, उनमें सूक्ष्म पृथ्वीकाय, भेदं रहित एक प्रकार की कही गई है। - सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा । इत्तो कालविभागं तु, वुच्छं तेसिं चउव्विहं ॥ ७६ ॥ कठिन शब्दार्थ - सव्वलोगम्मि - सर्व लोक में। भावार्थ - सूक्ष्म - पृथ्वीकाय के जीव सर्व लोक में व्याप्त हैं और बादर पृथ्वीका लोक के एक देश में व्याप्त हैं। यहां से आगे उनका चार प्रकार का कालविभाग कहूँगा । संतई पप्पणाइया, अपज्जवसिया विय। - ठि पडुच्च साइया, सपज्जवसिया वि य ॥ ८० ॥ भावार्थ - सन्तति (प्रवाह) की अपेक्षा पृथ्वीकाय अनादि और अपर्यवसित है । स्थिति की अपेक्षा से भी सादि (आदि सहित ) और सपर्यवसित है । बावीससहस्साइं, वासाणुक्कोसिया भवे । आउठिई पुढवीणं, अंतोमुहुत्तं जहण्णिया ॥ ८१ ॥ जघन्य । कठिन शब्दार्थ - बावीससहस्साइं - बाईस हजार, वासाणं वर्षों की, उक्कोसियाउत्कृष्ट, आउठिई - आयु स्थिति, अंतोमुहुत्तं - अंतर्मुहूर्त, जहण्णिया भावार्थ - पृथ्वीकाय के जीवों की आयुस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट बाई हजार वर्ष की होती है। विवेचन - तिर्यंचों की और मनुष्यों की दो प्रकार की स्थिति होती है । भवस्थिति और स्थिति। उस भव में जितना आयुष्य बंधा है उतना भोग कर मृत्यु प्राप्त कर दूसरी गति एवं Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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