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जीवाजीव विभक्ति - पृथ्वीकाय का निरूपण
३६६ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 दूसरी काया में चले जाना 'भवस्थिति' कहलाती है। एक भव की स्थिति पूरी करके फिर उसी गति और उसी काया में बार-बार जाना 'कायस्थिति' कहलाती है। देव गति और नरकगति में कायस्थिति नहीं बनती है क्योंकि नैरयिक मर कर दूसरे भव में नरक में नहीं जाता है इसी प्रकार देव मरकर दूसरे भव में देव नहीं बनता है। इसलिए नरकगति और देवगति में एक भवस्थिति ही पायी जाती है।
असंखकालमुक्कोसा, अंतोमुहत्तं जहणिया। कायठिई पुढवीणं, तं कायं तु अमुंचओ॥२॥
कठिन शब्दार्थ - असंखकालं - असंख्यातकाल की, उक्कोसा - उत्कृष्ट, कायठिईकायस्थिति, अमुंचओ - न छोड़ने वाले। ___ भावार्थ - उस पृथ्वीकाय को न छोड़ने (पृथ्वीकाय से मर कर फिर पृथ्वीकाय में ही उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकाय के जीवों की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल की है।
विवेचन - लोकाकाश के जितने आकाश प्रदेश हैं उतना उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल बीते उतना असंख्यात काल यहाँ लेना चाहिए। यह पृथ्वीकाय का उत्कृष्ट कायस्थिति परिमाण है।
अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहण्णयं।
विजढम्मि सए काए, पुढवी जीवाण अंतरं॥३॥ .. कठिन शब्दार्थ - विजढम्मि - छोड़ देने पर, सए काए - अपनी काया को, अंतरं - अंतर। . ___भावार्थ - अपनी काया को छोड़ देने पर पृथ्वीकाय के जीवों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्त काल का है।
विवेचन - अपनी गति और अपनी काया को छोड़ कर जीव दूसरी गति और दूसरी काया में चला जाय फिर वहाँ से वापिस उसी गति और उसी काया में जीव आवे, इस में जितना व्यवधान पड़ता है उसे 'अन्तर' कहते हैं। पृथ्वीकाय का अन्तर अनन्त पुद्गल परावर्तन बीते उतना अनन्तकाल समझना चाहिये। पृथ्वीकाय का जीव मर कर वनस्पति काय के अन्तर्गत निगोद में चला जाय तो इतना अन्तर पड़ सकता है।
एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस-फासओ। . .संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो॥४॥
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