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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन
से होती है। इसके छह भेद हैं - १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति ४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ५. भाषा पर्याप्ति और ६. मनःपर्याप्ति।
जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ संभव हैं। जब वह जीव अपनी उतनी पर्याप्तियों को पूरा कर लेता है तब उसे पर्याप्तक कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव स्वयोग्य चार पर्याप्तियाँ (आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास) पूरी करने पर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय उपर्युक्त चार और पांचवीं भाषा पर्याप्ति पूरी करने पर तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय उपर्युक्त पांच और छठी मनः पर्याप्ति पूरी करने पर पर्याप्तक कहे जाते हैं। - अपर्याप्तक - जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ संभव हैं उतनी पर्याप्तियाँ पूरी न हों तो वह अपर्याप्तक कहा जाता है।
जीव तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते हैं, पहले नहीं क्योंकि आगामी भव की आयु बांध कर ही मृत्यु प्राप्त करते हैं और आयु का बंध उन्हीं जीवों के होता है जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं।
... (ठाणाङ्ग २.सूत्र ७६) पृथ्वीकाय का निरूपण बायरा जे उ पजत्ता, दुविहा ते वियाहिया। सण्हा खरा य बोधव्वा, सण्हा सत्तविहा तहिं॥७२॥
कठिन शब्दार्थ - सहा - श्लक्ष्ण (कोमल), खरा - खर-कठोर, बोधव्वा - जानने चाहिए, सत्तविहा - सात प्रकार के। .. भावार्थ - जो बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय के जीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं - श्लक्ष्ण (कोमल) और खर (कठोर), उन में श्लक्ष्ण-कोमल पृथ्वीकाय के सात भेद जानने चाहिए।
किण्हा णीला य रुहिया, हालिद्दा सुक्किला तहा। पंडुपणग-मट्टिया, खरा छत्तीसई विहा॥७३॥ कठिन शब्दार्थ - पंडुपणग-मट्टिया - पाण्डुर पनक मृत्तिका, छत्तीसई विहा - छत्तीस
प्रकार की।
भावार्थ - कृष्ण - काली, नीली, रुधिर - लाल, हरिद्रा - पीली, शुक्ल - श्वेत और पाण्डुर (चन्दन के समान श्वेत) तथा पनकमृत्तिका (अत्यन्त सूक्ष्म रज रूपी मिट्टी)। खर पृथ्वी छत्तीस प्रकार की है। .
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