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________________ लेश्या - उपसंहार ३३१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - अंतमुहत्तम्मि - अंतर्मुहर्त, गए - बीत जाने पर, सेसए - शेष रहने पर, परलोयं - परलोक में। भावार्थ - अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर परिणत हुई लेश्याओं से रहित हो कर जीव परलोक में जाते हैं। विवेचन - जब जीव की अन्तर्मुहूर्त परिमाण आयु शेष रह जाती है तब आगामी जन्म में प्राप्त होने वाली लेश्या का परिणाम उस जीव में अवश्य आ जाता है, फिर उसी लेश्या के साथ जीव परभव में उत्पन्न होता है और उत्पन्न होने के अन्तर्मुहर्त तक उसी लेश्या के परिणाम रहते उपसंहार तम्हा एयासिं लेसाणं, आणुभावे* वियाणिया। अप्पसत्थाओ वजित्ता, पसत्थाओऽहिट्ठिए मुणी॥त्ति बेमि॥ कठिन शब्दार्थ - आणुभावे* - अनुभावों (रस विशेष को), वियाणिया - जान कर, अप्पसत्थाओ - अप्रशस्त, पसत्थाओ - प्रशस्त, अहिट्ठिए - धारण करे। - भावार्थ - इसलिए इन लेश्याओं के अनुभावों (रस विशेष) को जान कर मुनि-साधु अप्रशस्त लेश्याओं को छोड़ कर, प्रशस्त लेश्याओं को धारण करे। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या, ये तीन अप्रशस्त लेश्याएं हैं क्योंकि ये दुर्गति का कारण हैं। तेजोलेश्या, पद्यलेश्या, शुक्ललेश्या, ये तीन शुभ लेश्याएं हैं क्योंकि ये सुगति का कारण हैं। इन लेश्याओं के उक्त स्वरूप को जान कर अप्रशस्त (अधर्म) लेश्याओं का त्याग करें और प्रशस्त (धर्म) लेश्याओं को धारण करे। ॥ इति लेश्या नामक चौतीसवां अध्ययन समाप्त। * पाठान्तर - अणुभागे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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