________________
३३०
उत्तराध्ययन सूत्र - चौतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - कृष्ण, नील, कापोत ये तीन लेश्याएं अधर्मलेश्याएं इसलिये कही गई हैं कि इनके प्रभाव से जीव अशुभगति - दुर्गति का ही बंध करता है और प्रायः नरक, तिर्यंच आदि दुर्गतियों में ही उत्पन्न होता है क्योंकि अधर्म का फल दुर्गति है। इससे विपरीत तेजो, पद्म, शुक्ल ये तीन लेश्याएं पुण्य या धर्म का हेतु होने से धर्म लेश्याएं कही गई हैं। इन लेश्याओं वाला जीव देव, मनुष्य आदि सुगतियों में उत्पन्न होता है।
११. आयुष्यद्वार लेस्साहिं सव्वाहिँ, पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु। ण हु कस्सइ उववत्ति, परे भवे अस्थि जीवस्स॥८॥
कठिन शब्दार्थ - पढमे समयम्मि - पहले समय में, परिणयाहिं - परिणत हुई, कस्सइ - किसी भी, उववत्ति - उत्पत्ति, परे भवे - परभव में, ण अत्थि - नहीं होती, जीवस्स - जीव की। ___ भावार्थ - मरण समय के पहले समय में परिणत हुई सभी लेश्याओं से निश्चय ही किसी भी जीव की पर-भव में उत्पत्ति नहीं होती है (छहों लेश्याओं में से किसी भी लेश्या को आये हुए केवल एक समय हुआ हो तो उस समय कोई भी जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है)। . - लेस्साहिं सव्वाहिं, चरिमे समयम्मि परिणयाहिं तु।.
ण हु कस्सइ उववत्ति, परे भव अत्थि जीवस्स॥५६॥ कठिन शब्दार्थ - चरिमे समयम्मि - चरम (अंतिम) समय में।
भावार्थ - मरण काल के अन्तिम समय में परिणत हुई सभी लेश्याओं से निश्चय ही किसी भी जीव की पर-भव में उत्पत्ति नहीं होती।
विवेचन - मृत्यु के समय पर आगामी जन्म के लिए जब इस आत्मा का लेश्याओं में परिवर्तन होता है उस समय किसी भी लेश्या के प्रथम और अन्तिम समय में किसी भी जीव की उत्पत्ति नहीं होती है।
अंतमुहत्तम्मि गए, अंतमुहत्तम्मि सेसए चेव। . लेस्साहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं॥६०॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org