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________________ १० . उत्तराध्ययन सूत्र - इक्कीसवां अध्ययन views Newmovie wooooooooooooooooooo भावार्थ - विचक्षण भिक्षु-साधु राग और द्वेष को तथा इसी प्रकार मोह को सतत-निरन्तर छोड़ कर वायु से कम्पित न होने वाले मेरु पर्वत के समान अडोल हो कर आत्मा को वश कर के परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करे। समुद्रपाल मुनि ऐसा ही आचरण करते थे। अणुण्णए णावणए महेसी, ण यावि पूर्य गरहं च संजए। से उजुभावं पडिवज संजए, णिव्वाणमग्गं विरए उवेइ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - अणुण्णए - उन्नत न हो, णावणए - अवनत न हो, पूयं - पूजा को, गरहं - गर्दा में, उज्जुभावं - सरल भाव को, पडिवज्ज - स्वीकार करके, णिव्वाणमगंनिर्वाण मार्ग को, विरए - विरत हो कर, उवेइ - प्राप्त होता है। भावार्थ - महर्षि पूजा को प्राप्त कर के उन्नत न हो और निन्दा के प्रति अवनत भाव को प्राप्त न हो अर्थात् जो साधु अपनी पूजा से गर्वित नहीं होता और निन्दा से जिसके मन में द्वेष या दीनभाव उत्पन्न नहीं होता, किन्तु समभाव रखता है वह संयत अर्थात् पांच इन्द्रियों को वश में रखने वाले संयमी साधु कामभोगों से सर्वथा विरत हो कर तथा सरल भाव को प्राप्त हो कर निर्वाण मार्ग (मोक्षमार्ग) को प्राप्त होता है। समुद्रपाल मुनि भी इसी प्रकार शुद्ध आचरण करते हुए मोक्षमार्ग की आराधना करते थे। अरइरइसहे पहीणसंथवे, विरए आयहिए पहाणवं। . परमट्ठपएहिं चिट्ठइ, छिण्णसोए अममे अकिंचणे॥२१॥ कठिन शब्दार्थ - अरइरइसहे - अरति और रति को सहन करने वाला, पहीणसंथवे - संस्तव-सांसारिक जनों के अति परिचय को छोड़ देने वाला, आयहिए - आत्म हित साधक, पहाण - प्रधानवान् संयम में रत, परमट्ठपएहिं - परमार्थ पदों में, चिट्ठइ - स्थित रहते थे, छिण्णसोए - छिन्न स्रोत - शोक रहित, अममे - ममता-मूर्छा रहित, अकिंचणे - अकिञ्चननिष्परिग्रही। भावार्थ - संयम में अरति और असंयम में रति रूप परीषह को सहन करने वाला, गृहस्थों के परिचय को छोड़ देने वाला, विरत - काम-भोगों का सर्वथा त्याग करने वाला, आत्म-हित साधन में तत्पर, प्रधान संयम में रत, आस्रवादि स्रोतों का निरोध करने वाला एवं शोक-रहित, ममत्व रहित, अकिंचन अर्थात् द्रव्य-भाव परिग्रह-रहित, वे समुद्रपाल मुनि परमार्थ पद में अर्थात् मोक्षमार्ग में स्थित थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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