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समुद्रपालीय - मुनिधर्म शिक्षा 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 .: कठिन शब्दार्थ - दुव्विसहा - दुःसह, सीयंति - खिन्न हो जाते हैं, बहुकायरा णरा - बहुत से कायर मनुष्य, पत्ते - प्राप्त होने पर, ण वहिज्ज - व्यथित न हो, संगामसीसे - संग्राम में आगे रहने वाले, णागराया - नागराज (हाथी)। . भावार्थ - साधु अवस्था में अनेक प्रकार के दुःसह्य परीषह उपस्थित होते हैं जिससे बहुत-से कायर मनुष्य संयम में शिथिल हो जाते हैं किन्तु संग्राम के अग्रभाग में रहे हुए शूरवीर हाथी के समान संयम में दृढ़ साधु उन परीषह (उपसर्गों) के प्राप्त होने पर घबरावे नहीं अर्थात् संयममार्ग से चलित न होवे। इसी प्रकार वे समुद्रपाल मुनि भी परीषह-उपसर्गों से चलित नहीं होते थे।
सीओसिणा दंसमसगा य फासा, आयंका विविहा फुसंति देहं। अकुक्कुओ तत्थऽहियासएज्जा, रयाई खेवेज पुरेकडाइं॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - सीओसिणा - शीत और उष्ण, दंसमसगा - दंश-मशक - डांस और मच्छर, फासा - स्पर्श, आयंका - आतंक (रोग), विविहा - विविध प्रकार के, फुसंति - स्पर्श करते हैं, देहं - शरीर को, अकुक्कुओ - कुत्सित शब्दोचारण, अहियासएजासमभाव से सहन करे, रयाई - कर्म रज को, खेवेज - दूर कर दे, पुरेकडाई - पूर्वकृत। ___भावार्थ - साधु अवस्था में शीत और उष्ण, डाँस और मच्छर, तृणस्पर्शादि परीषह और अनेक प्रकार के आतंक ('सद्योघाती आतंकः' - ऐसा रोग जिससे प्राणी की तुरन्त मृत्यु हो जाय, जैसे कि हैजा, प्लेग आदि) शरीर को स्पर्श करते हैं उस समय आक्रन्दन नहीं करता हुआ उन्हें समभाव पूर्वक सहन करे और पूर्वकृत कर्म रूपी रज को क्षय करे। समुद्रपाल मुनि भी इसी प्रकार आचरण करते थे। - पहाय रागं च तहेव दोसं, मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणो।
मेरुव्व वाएण अकंपमाणो, परीसहे आयगुत्ते सहेजा॥१६॥ .कठिन शब्दार्थ - पहाय - छोड़ कर, रागं - राग को, तहेव - इसी प्रकार, दोसं - द्वेष को, मोहं - मोह को, सययं - सतत, वियखणो - विचक्षण, मेरुव्व - मेरु पर्वत के समान, वाएण - वायु से, अकंपमाणो - कम्पित न होने वाले, परीसहे - परीषहों को, आयगुत्ते - आत्मगुप्त हो कर, सहेजा - सहन करे।
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