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उत्तराध्ययन सूत्र - इक्कीसवां अध्ययन
के बलाबल अर्थात् सहिष्णुता और असहिष्णुता रूप शक्ति को जान कर देश में विचरे और जिस प्रकार सिंह किसी भयानक शब्द को सुन कर भयभीत नहीं होता उसी प्रकार साधु भी भयानक शब्दों को सुन कर डरे नहीं और दुःखोत्पादक शब्दों को सुन कर असभ्य एवं कठोर वचन न कहे। समुद्रपाल मुनि भी उपरोक्त प्रकार से आचरण करते थे ।
माण परिव्वज्जा, पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा ।
ण सव्व सव्वत्थऽभिरोयएज्जा, ण यावि पूयं गरहं च संजय ॥ १५ ॥
कठिन शब्दार्थ - उवेहमाणो - उपेक्षा करता हुआ, परिव्वएजा - विचरे, पियमप्पियंप्रिय और अप्रिय, तितिक्खएज्जा
सर्वत्र, ण अभिरोयएजा
सहन करे, सव्वत्थ अभिलाषा न करे, पूयं - पूजा, गरहं - गर्हा - निंदा।
भावार्थ - संयत-इन्द्रियों को वश में रखने वाला मुनि उपरोक्त बातों का विचार करता हुआ विचरे तथा प्रिय और अप्रिय सभी को समभाव से सहन करे (इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग में सहनशील हो कर मध्यस्थ भाव रखे) सर्वत्र सभी पदार्थों की अभिलाषा न करे (जिन-जिन सुन्दर वस्तुओं को देखे, उन सभी की इच्छा नहीं करे ) तथा पूजा - सत्कार और गर्हा ( निंन्दा ) को भी न चाहे । समुद्रपाल मुनि प्रशंसा और निन्दा में समभाव रखते थे।
अगछंदामिह माणवेहिं, जे भावओ संपगरेइ भिक्खू |
८
भयभेरवा तत्थ उइंति भीमा, दिव्वा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ॥ १६ ॥
भयोत्पादक
कठिन शब्दार्थ - अणेगछंदा - अनेक प्रकार के अभिप्राय, माणवेहिं - मनुष्यों के द्वारा, भावओ भाव से, संपगरेइ - सम्यक् रूप से ग्रहण करे, भयभेरवा भयंकर, उइंति उदय (उत्पन्न) होते हैं, भीमा - भीम-अति रौद्र, दिव्वा - देव सम्बन्धी, मणुस्सा - मनुष्य संबंधी, तिरिच्छा - तिर्यंच संबंधी ।
भावार्थ - इसलोक में मनुष्यों के अनेक प्रकार के अभिप्राय हो सकते हैं । औदयिक आदि भावों के कारण वैसे अभिप्राय साधु के मन में भी उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु साधु अपने संयम में दृढ़ रहे। साधु अवस्था में अत्यन्त भयोत्पादक, भयंकर देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्ग प्राप्त होते हैं, उन्हें समभावपूर्वक सहन करे ।
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परीसहा दुव्विसहा अणेगे, सीयंति जत्थ बहु कायरा णरा ।
से तत्थ पत्ते ण वहिज्ज भिक्खू, संगाम-सीसे इव णागराया ॥ १७ ॥
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