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समुद्रपालीय - मुनिधर्म शिक्षा
विवित्त लयणाई भएज्ज ताई, णिरोवलेवाइं असंथडाई ।
इसीहिं चिण्णाई महायसेहिं, कारण फासेज परीसहाई ॥ २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - विवित्त लयणाई - विविक्त - स्त्री-पशु-पण्डक के संसर्ग से रहित एकान्त लयनों - आवास स्थानों का, भएज सेवन करे, ताई त्रायी छहकाय जीवों का त्राता-रक्षक, णिरोवलेवाइं - उपलेप से रहित, असंथडाई - असंसृत - बीजादि से रहित, इसीहिं - ऋषियों द्वारा, चिण्णाई - सेवित, महायसेहिं - महायशस्वी, कारण फासेज्ज - सहन करे, परीसहाइं- परीषहों को ।
काया से,
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पाठान्तर - णिरंगणे
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भावार्थ - त्रायी - छह काय जीवों के रक्षक साधु, उपलेप रहित अर्थात् आसक्ति के कारणों से रहित अथवा साधु के लिए नहीं लीपे हुए असंसृत बीजादि से रहित और महायशस्वी ऋषियों द्वारा सेवित स्त्री- पशु - नपुंसक से रहित स्थानों का सेवन करे। ऐसे उपाश्रय में रहते हुए यदि परीषह उपस्थित हों तो साधु उन्हें समभाव पूर्वक काया से सहन करे । समुद्रपाल मुनि ऐसा ही करते थे ।
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सण्णाण - णाणोवगए महेसी, अणुत्तरं चरिउं धम्मसंचयं ।
अणुत्तरे णाणधरे जसंसी, ओभासइ सूरिए वंऽतलिक्खे ॥ २३ ॥
कठिन शब्दार्थ - सण्णाणणाणोवगए - अनेक प्रकार के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करके, अणुत्तरं - प्रधान, चरिडं सेवन करके, धम्मसंचयं - धर्म संचय का, अणुत्तरे णाणधरे सर्वश्रेष्ठ ज्ञान (केवलज्ञान) को धारण करने वाला, जसंसी - यशस्वी, ओभासइ - प्रकाशित होता है; सूरिए वं सूर्य के समान, अंतलिक्खे - आकाश में।
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भावार्थ - अनेक प्रकार के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करके प्रधान क्षमा आदि यतिधर्मों के समुदाय का सेवन करके सर्वश्रेष्ठ केवलज्ञान को धारण करने वाला यशस्वी मुनि, आकाश में सूर्य के समान प्रकाशित होता है।
दुविहं खवेऊण य पुण्णपावं, णिरंजणे तरित्ता समुहं च महाभवोघं, समुद्दपाले कठिन शब्दार्थ - दुविहं दोनों प्रकार के, खवेऊण
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सव्वओ विप्पमुक्के। अपुणागमं गए ॥ २४ ॥ त्ति बेमि ॥
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क्षय करके, पुण्णपावं - पुण्य
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