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________________ कम्मपयडी णामं तेत्तीसइमं अज्झयणं कर्मप्रकृति नामक तेतीसवां अध्ययन इस अध्ययन का नाम कर्मप्रकृति है। इसमें कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों का वर्णन किया गया है। - बत्तीसवें अध्ययन में कर्म का मूल बता कर सूत्रकार इस अध्ययन में कर्मों का स्वरूप समझा कर अंत में कर्म क्षय की प्रेरणा देते हैं। प्रस्तुत अध्ययन की २५ गाथाओं में से प्रथम गाथा इस प्रकार है - आठ कर्म अट्ठ कम्माई वोच्छामि, आणुपुव्विं जहक्कम। जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परिवट्टइ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - अट्ठ कम्माई - आठ कर्मों का, वोच्छामि - वर्णन करूंगा, आणुपुब्दि- आनुपूर्वी से, जहक्कम - क्रमशः, जेहिं बद्धो - जिनसे बंधा हुआ, संसारे - संसार में, परिवदृइ - पर्यटन करता है। भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू! मैं आठ कर्मों का आनुपूर्वी एवं यथाक्रम से वर्णन करूंगा जिनसे बंधा हुआ यह जीव संसार में परिभ्रमण करता रहता है। विवेचन - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों के द्वारा जीव जिनको करता है उन्हें कर्म कहते हैं। वे ज्ञानावरणीयादि आठ हैं। इनका उदय आने पर जीव नरक, निगोद आदि के दुःखों का उपभोग करता है। णाणस्सावरणिज्जं, दसणावरणं तहा। वेयणिजं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य॥२॥ णामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माइं, अढेव उ समासओ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - णाणस्सावरणिज्ज - ज्ञान का आवरण करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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