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उत्तराध्ययन सूत्र - तेतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 दसणावरणं - दर्शनावरणीय, वेयणिज्जं - वेदनीय, तहा - तथा, मोहं - मोहनीय कर्म,
आउकम्मं - आयुष्य कर्म, णामकम्मं - नाम कर्म, गोयं - गोत्र, अंतरायं - अंतराय, एवं - इस प्रकार, एयाई - ये, कम्माई - कर्म, अट्टेव - आठ ही हैं, समासओ - संक्षेप में।
भावार्थ - ज्ञान को आवृत्त करने वाला ज्ञानावरणीय, दर्शन को आवृत्त करने वाला दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु कर्म, नाम कर्म, गोत्र और अन्तराय, इस प्रकार ये संक्षेप से आठ ही कर्म कहे गये हैं।..
ज्ञानावरणीय की उत्तर प्रकृतियां णाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणिबोहियं।
ओहिणाणं च तइयं, मणणाणं च केवलं॥४॥
कठिन शब्दार्थ - णाणावरणं - ज्ञानावरणीय कर्म, पंचविहं - पांच प्रकार का है, सुयं - श्रुत, आभिणिबोहियं - आभिनिबोधिक, ओहिणाणं - अवधिज्ञान, मणणाणं - . मनः (पर्याय) ज्ञान, केवलं - केवल (ज्ञानावरण)।
भावार्थ - ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकार का है - श्रुत-ज्ञानावरणीय, आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरणीय, तीसरा अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्यव-ज्ञानावरणीय और केवल ज्ञानावरणीय।
विवेचन - इनमें से पहले के चार ज्ञान क्षायोपशमिक भाव में जाते हैं और केवल ज्ञान क्षायिक भाव में है। मनः पर्यवज्ञान के दो पर्यायवाची शब्द हैं - मन पर्याय और मन पर्यव। इनमें से तीन ज्ञान तो चारों गति के जीवों को हो सकते हैं। मनपर्यव और केवलज्ञान मनुष्य को ही होते हैं। ___ यद्यपि व्याख्या प्रज्ञप्ति, स्थानांग और अनुयोगद्वार तथा नंदी एवं प्रज्ञापना आदि आगमों में पहले मतिज्ञान का (जिसका दूसरा नाम आभिनिबोधिक ज्ञान है) उल्लेख किया गया है, तथापि श्रुतज्ञान की प्रधानता दिखाने के लिए ही यहाँ पर इसका प्रथम उल्लेख किया गया है, इसलिए विरोध की कोई आशंका नहीं करनी चाहिए।
दर्शनावरणीय की उत्तर प्रकृतियां णिद्दा तहेव पयला, णिहाणिद्दा पयलपयला य। तत्तो य थीणगिद्धी उ, पंचमा होइ णायव्वा॥५॥
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