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उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 आमय-दीर्घकालिक, विप्पमुक्को - विमुक्त, पसत्थो - प्रशस्त, अच्चंतसुही - अत्यंत सुखी, कयत्थो - कृतार्थ।
भावार्थ - जो दुःख इस जीव को सतत-निरन्तर बाधित-पीड़ित कर रहा है, उस सभी दुःख से वह जीव मुक्त हो जाता है और ऐसा प्रशस्त जीव दीर्घ आमय - दीर्घकालीन स्थिति वाले. कर्म रूपी रोग से मुक्त हो जाता है। इसके बाद कृतार्थ बना हुआ वह जीव अत्यन्त सुखी हो जाता है।
विवेचन - इन्द्रिय विषयों एवं कषायों की विरक्ति से जब वीतरागता की प्राप्ति होती है तब मोहनीय कर्म के क्षय होते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्म का क्षय हो जाता है। चारों घनघाति कर्मों का क्षय होने पर आत्मा शुद्ध, कृतकृत्य, अनाश्रव, निर्मोह, अंतराय रहित तथा केवलज्ञानी-केवलदर्शनी हो जाती है। तदनन्तर वह शुक्लध्यान से मुक्त होकर आयुष्य का क्षय करने के साथ ही चारों अघाति कर्मों का भी क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बन जाती है, सर्व दुःखों से रहित परमात्मा बन जाती है।
उपसंहार अणाइकालप्पभवस्स एसो, सव्वस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो। वियाहिओ जं समुविच्च सत्ता, कमेण अच्चंतसुही भवंति॥१११॥ त्ति बेमि॥
कठिन शब्दार्थ - अणाइकालप्पभवस्स - अनादिकालप्रभव - अनादिकाल से उत्पन्न होते आये, पमोक्खमग्गो - प्रमोक्ष (मुक्ति) का मार्ग, समुविच्च - सम्यक् प्रकार से अपना कर, कमेण - क्रमशः, अच्चंतसुही - अत्यंत सुखी - अनंत सुख संपन्न।
___ भावार्थ - यह अनादि काल से उत्पन्न हुए समस्त दुःखों से छुटकारा पाने का मार्ग कहा • गया है, जिस मार्ग को सम्यक् रूप से अंगीकार करके सत्त्व जीव क्रम से अत्यन्त सुखी हो जाता है (अनन्त आत्मिक सुख सम्पन्न मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं)। ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - प्रस्तुत अध्ययन के प्रारंभ में सूत्रकार ने अनादिकालीन दुःखों से सर्वथा मुक्ति का उपाय बताने की प्रतिज्ञा की थी तदनुसार अध्ययन के अंत में स्मरण कराया है कि यही अनादिकालीन सर्व दुःख मुक्ति का उपाय है जिसे अपना कर प्रत्येक व्यक्ति एकांत सुख स्थानमोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
॥ इति प्रमादस्थान नामक बत्तीसवां अध्ययन समाप्त॥
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