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प्रमादस्थान - इन्द्रिय विषयों के प्रति वीतरागता
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कठिन शब्दार्थ - जे - जो, दोसं - द्वेष, तंसि क्खणे - उसी क्षण, दुइंतदोसेण - दुर्दान्त दोष से, सएण - अपने-स्वयं के ही, जंतू - प्राणी, किंचि - कुछ भी, ण अवरुज्झइअपराध नहीं करता है।
भावार्थ - जो जीव अमनोज्ञ रूप में तीव्र द्वेष को प्राप्त होता है वह प्राणी अपने ही दुर्दान्त दोष - तीव्र दोष से उसी क्षण में दुःख को प्राप्त होता है इसमें रूप का कुछ भी अपराध (दोष) नहीं है, किन्तु वह जीव अपने ही दोष से स्वयं दुःखी होता है।
एगंतरत्ते रुइरसि रूवे, अतालिसे से कुणइ पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, ण लिप्पइ तेण मुणी विरागो॥२६॥
कठिन शब्दार्थ - एगंतरत्ते - एकान्तरक्त - अत्यंत आसक्त-अनुरक्त, रुइरंसि - रुचिर (सुंदर), रूवे - रूप में, अतालिसे - अतादृश - कुरूप में, कुणइ - करता है, पओसं - प्रद्वेष, दुक्खस्स - दुःख की, संपीलमुवेइ - पीड़ा को प्राप्त होता है, बाले - अज्ञानी, ण लिप्पड़ - लिप्त नहीं होता, विरागो - विरक्त - वीतराग। .. भावार्थ - जो जीव सुन्दर रूप में अत्यन्त अनुरक्त होता है और असुन्दर रूप में द्वेष करता है, वह बाल (अज्ञानी) जीव अत्यन्त दुःख एवं पीड़ा को प्राप्त होता है किन्तु वीतराग मुनि उस दुःख से लिप्त नहीं होता अर्थात् वीतराग मुनि को वह दुःख प्राप्त नहीं होता है।
रूवाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ णेगरूवे। चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अतट्टगुरु किलिट्टे॥२७॥
कठिन शब्दार्थ :- रूवाणुगासाणुगए - रूपानुगाशानुगत :- रूप की आशा का अनुगमन करने वाला, चराचरे - चर-अचर (त्रस और स्थावर), हिंसइ - हिंसा करता है, णेगरूवे - अनेक प्रकार के, चित्तेहि - चित्र - विभिन्न प्रकार के, परितावेई - परिताप उपजाता है, पीलेइ - पीड़ित करता है, अतट्टगुरु - आत्मार्थ गुरु - एक मात्र अपने ही स्वार्थ को महत्त्व देने वाला, किलिट्टे - क्लिष्ट कुटिल।
भावार्थ - रूप की आशा से उसका अनुसरण करने वाला अर्थात् रूप की आसक्ति में फंसा हुआ जीव अनेक प्रकार के चराचर (त्रस और स्थावर) प्राणियों की हिंसा करता है और वह बाल (अज्ञानी जीव) उन जीवों को अनेक प्रकार के शस्त्रों से परिताप उपजाता है और अपने ही स्वार्थ में तल्लीन बना हुआ वह कुटिल जीव अनेक जीवों को पीड़ित करता है। .
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