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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन भावार्थ - समाधि को चाहने वाला श्रमण, तपस्वी इन्द्रियों के जो मनोज्ञ विषय हैं उनमें कभी भी रागभाव न करे और अमनोज्ञ विषयों में मन से भी द्वेष भाव न करे। चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाह । तं दोसउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - चक्खुस्स - चक्षु का, रूवं रूप, गहणं - ग्रहण ग्राह्य विषय, वयंति कहा जाता है, रागहेउं - राग का हेतु (कारण), मणुण्णं - मनोज्ञ, आहु - कहा है, दोसहेडं - दोष हेतु, अमणुण्णं - अमनोज्ञ, समो सम रहता है, वीयरागो - वीतराग । भावार्थ - रूप, चक्षु इन्द्रिय का ग्रहण (विषय) कहते हैं और जो रूप मनोज्ञ है उसे रागहेतु - राग का कारण कहते हैं और जो रूप अमनोज्ञ है उसे द्वेष हेतु - द्वेष का कारण कहते हैं किन्तु जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपों में समभाव रखता है, वह वीतराग है। रूवस्स चक्खुं गहणं वयंति, चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति । २७२ - Jain Education International - - रागस्स हेडं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥ २३ ॥ भावार्थ चक्षु को रूप का ग्राहक कहते हैं और रूप को चक्षु का ग्राह्य ( ग्रहण करने योग्य) कहते हैं। ज्ञानी पुरुष मनोज्ञ रूप को राग का हेतु - कारण कहते हैं और अमनोज्ञ रूप को द्वेष का हेतु - कारण कहते हैं। रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावड़ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे, आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥ २४ ॥ रूपों में, गिद्धिं - गृद्धि - आसक्ति, उवेइ -कटिन शब्दार्थ - रूवेसु तिव्वं - तीव्र, अकालियं अकाल में ही, पावइ पाता है, विणासं . रागाउरे - रागातुर, पयंगे - पतंगा, आलोयलोले - प्रकाश लोलुप, समुवेइ - प्राप्त होता है, रखता है, विनाश को, - चुं - मृत्यु को । भावार्थ जैसे आलोक लोक - दीपक के प्रकाश का लोलुपी रागातुर - राग से विह्वल पतंगिया दीपक की लौ पर गिर कर मृत्यु को प्राप्त होता है वैसे ही जो पुरुष रूप में तीव्र गृद्धि ( आसक्ति) भाव को रखता है वह अकाल में ही विनाश को अर्थात् मृत्यु को प्राप्त होता है। जे यावि दो समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेड़ दुक्खं । दुद्दतदोसेण सएण जंतू, ण किंचि रूवं अवरुज्झइ से ॥ २५ ॥ - - - - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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