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प्रमादस्थान - इन्द्रिय विषयों के प्रति वीतरागता
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- कामभोगों की भयंकरता कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरामो॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - कामाणुगिद्धिप्पभवं - कामानुगृद्धिप्रभव - कामासक्ति से उत्पन्न, सदेवगस्स - देवों सहित, काइयं - कायिक, माणसियं - मानसिक, तस्संतगं - उन का अन्त, वीयरागो - वीतराग।
भावार्थ - देवलोक सहित समग्र लोक में जो कुछ भी कायिक - शारीरिक और मानसिक दुःख हैं, वे सब वास्तव में कामभोगों की आसक्ति से ही उत्पन्न हुए हैं। वीतराग पुरुष ही उन दुःखों का पार पा सकता है।
जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुजमाणा। ते खड्डए जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे॥२०॥
कठिन शब्दार्थ - किंपागफला - किम्पाक फल, मणोरमा - मनोरम, रसेण वण्णेण य - रस और वर्ण (रंग रूप) से, भुज्जमाणा - खाने पर, खुए - विनाश कर देते हैं, जीविय - जीवन का, पच्चमाणा - परिपाक में, एओवमा - इन्हीं के समान, कामगुणा - कामभोगों के, विवागे - विपाक।
भावार्थ - जैसे किंपाक वृक्ष के फल रस से मधुर और खाने में भी स्वादिष्ट लगते हैं किन्तु परिपाक के समय (खाने के थोड़े समय बाद ही) वे सोपक्रम आयु वाले प्राणियों के जीवन को नष्ट कर देते हैं। यही उपमा कामभोगों के विपाक (परिणामों) की होती है अर्थात् ये भोगते समय तो अच्छे लगते हैं किन्तु इनका परिणाम महा दुःखदायी होता है।
___ इन्द्रिय विषयों के प्रति वीतरागता जे इंदियाणं विसया मणुण्णा, ण तेसु भावं णिसिरे कयाइ। ण यामणुण्णेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी॥२१॥
कठिन शब्दार्थ - इंदियाणं - इन्द्रियों के, विसया - विषय, मणुण्णा - मनोज्ञ, भावं - भाव, ण णिसरे - न करें, अमणुण्णेसु - अमनोज्ञ में।
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