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________________ चरणविधि - इकतीस-बत्तीस-तेतीसवां बोल २५६ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मर्यादा आचाराङ्ग सूत्र में बतलाई गई है। इसलिए इसके २८ भेद ऊपर बतला दिये गये हैं। निशीथ सूत्र आचारांग सूत्र की चूलिका मात्र है। समवायाङ्ग सूत्र के २८ वें समवाय में आचार-प्रकल्प के २८ भेद दूसरे प्रकार से दिये गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १ एक मास, २ एक मास पांच दिन, ३ एक मास दस दिन, ४ एक मास पन्द्रह दिन, ५ एक मास बीस दिन, ६ एक मास पच्चीस दिन। ये एकमास के छह भेद हुए। इसी प्रकार दूसरे मास के छह, तीसरे मास के छह, चौथे मास के छह भेद कर देने से चौबीस भेद हुए। २५ उद्घातिक, २६ अनुद्घातिक, २७ कृत्स्ना (सम्पूर्ण) आरोपणा, २८ अकृत्स्ना आरोपणा। उनतीसवां-तीसवां बोल पावसुयप्पसंगेसु, मोहठाणेसु चेव य। जे भिक्खू जयइ णिच्चं, से ण अच्छइ मंडले॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - पावसुयप्पसंगेसु - पापश्रुत के प्रसंगों में, मोहट्ठाणेसु - मोह स्थानों में। भावार्थ - जो साधु उनतीस प्रकार के पापसूत्रों में सदा उपयोग रखता है (पापसूत्रों का कथन नहीं करता) और मोहनीय-कर्म बाँधने के तीस स्थानों का त्याग करता है, वह मण्डल (संसार) में परिभ्रमण नहीं करता है। विवेचन - जिसके पढ़ने सुनने से जीव की पापकर्म में रुचि उत्पन्न हो, उसे पापश्रुत कहते हैं। समवायांग सूत्र समवाय २६ में उनतीस पापश्रुतों का वर्णन है। . महामोहनीय कर्म का बन्ध तीव्र दुरध्यवसाय, क्रूरता आदि के कारण होता है। यद्यपि इसके कारणों की कोई सीमा नहीं बांधी जा सकती है फिर भी आगमकार ने इसके मुख्य ३० कारण बताये हैं जिनका विस्तृत वर्णन समवायांग सूत्र समवाय ३० में तथा दशाश्रुतस्कन्ध की नौवीं दशा में है। इकतीस-बत्तीस-तैतीसवां बोल सिद्धाइगुणजोगेसु, तेतीसासायणासु य। जे भिक्खू जयइ णिच्चं, से ण अच्छइ मंडले॥२०॥ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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