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________________ २६० उत्तराध्ययन सूत्र - इकत्तीसवाँ अध्ययन कठिन शब्दार्थ - सिद्धाइगुण - सिद्धों के गुणों में, जोगेसु - योग संग्रहों में, तेत्तीसासायणासु - तेतीस प्रकार की आशातनाओं में। भावार्थ - जो साधु सिद्ध भगवान् के इकत्तीस आदि - गुण और बत्तीस प्रकार के योगसंग्रहों में सदा उपयोग रखता है और तेतीस आशातनाओं का त्याग करता है, वह मण्डल (संसार) में परिभ्रमण नहीं करता है। विवेचन - गाथा में 'सिद्धाइगुण' शब्द दिया है - सिद्ध-‘आदि गुण' यहाँ आदि शब्द का अर्थ है - 'प्रारम्भ'। इसलिए यह अर्थ निकलता है कि - जो जीव आठ कर्म खपा कर मोक्ष में जाता है। उसके सिद्ध अवस्था की प्राप्ति के प्रारम्भ बेला में ही ये ३१ गुण प्रकट हो जाते हैं। ये युगपद (एक साथ) स्थायी गुण हैं, क्रम भावी नहीं। इसलिए शास्त्रकार ने 'आदि गुण' शब्द दिया है। जिसका अर्थ हुआ - सिद्ध अवस्था के प्रारम्भ में ही प्रगट होने वाले गुण तथा बत्तीस योग संग्रहों का वर्णन समवायाग सूत्र के ३२ वें समवाय में किया गया है और तेतीस आशातनाओं का वर्णन समवायाङ्ग सूत्र के ३३ वें समवाय में तथा दशाश्रुतस्कन्ध की तीसरी दशा में किया गया है। उपसंहार इय एएसु ठाणेसु, जे भिक्खू जयइ सया। खिप्पं सो सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिओ॥२१॥ त्ति बेमि॥ कठिन शब्दार्थ - एएसु ठाणेसु - इन स्थानों में, विष्पमुच्चइ - विमुक्त हो जाता है, सव्वसंसारा - समग्र संसार से। भावार्थ - इस प्रकार इन ऊपर कहे गये स्थानों में जो भिक्षु-साधु सदा उपयोग रखता है (छोड़ने योग्य स्थानों का त्याग करता है और जानने योग्य स्थानों के स्वरूप को जानता है और ग्रहण करने योग्य स्थानों को ग्रहण करता है) वह पंडित पुरुष क्षिप्र-शीघ्र ही समस्त सांसारिक बन्धनों से विप्रमुक्त हो जाता है अर्थात् छूट जाता है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - अठारह पापों का तीन करण तीन योग से सर्वथा त्याग करने वाला पण्डित कहलाता है। ॥ इति चरणविधि नामक इकत्तीसवाँ अध्ययन समाप्त। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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