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चरणविही णामं एगतीसइमं अज्झयणं
चरणविधि नामक इकतीसवाँ अध्ययन - इस अध्ययन में एक से लगाकर ३३ तक की संख्या को माध्यम बना कर श्रमण के चारित्र के विविध गुणों का वर्णन है। चारित्र की विविध विधियों का वर्णन होने से इसका नाम चरणविधि रखा गया है। इसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है -
चारित्र विधि का महत्त्व चरणविहिं पवक्खामि, जीवस्स उ सुहावहं। जं चरित्ता बह जीवा, तिण्णा संसार-सागरं ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - चरणविहिं - चारित्र विधि को, पवक्खामि - कहता हूं, जीवस्स - जीव के, सुहावहं - सुखकारी, चरित्ता - आचरण करके, तिण्णा - तिर गये, संसार-सागरंसंसार समुद्र।
भावार्थ - अब मैं चारित्र की विधि का वर्णन करूँगा जो कि जीव के लिए सुखकारी एवं शुभकारी है और जिसका आचरण कर के बहुत से जीव संसार-सागर से तिर गये हैं। .
विवेचन - ज्ञान, दर्शन, चारित्र यह मोक्ष का मार्ग है। ज्ञान से जीवादि तत्त्वों का बोध होता है और दर्शन से उन पर श्रद्धा दृढ़ होती है। चारित्र से आते हुए कर्म रुकते हैं और चारित्र के भेद स्वरूप तप से पूर्व बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होती है। चारित्र का पालन किस प्रकार करना चाहिए, इसकी विधि को जानना आवश्यक है। इसलिए इस अध्ययन में चारित्र की विधि बताई जाती है।
इस अध्ययन में एक बोल से लेकर ३३ बोल तक का वर्णन दिया गया है। इन सब बोलों का टीका के अनुसार विस्तृत वर्णन श्री अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर से प्रकाशित 'जैन सिद्धान्त बोल संग्रह' के ७ भागों में है। यथा - प्रथम भाग में १-५। दूसरे भाग में ६-७। तीसरे भाग में ८-६-१०। चौथे भाग में ११-१२-१३। पांचवें भाग में १४ से १९ तक। छठे भाग में २० से ३० तक और सातवें भाग में ३१ से ५७ तक बोलों का विस्तृत अर्थ दिया गया है। अतः जिज्ञासुओं को उन भागों में देखना चाहिए।
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