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________________ २४८ उत्तराध्ययन सूत्र - तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - सयणासणठाणे - शयन, आसन और स्थान में, ण वावरे - चलनात्मक क्रिया न करे, कायस्स विउस्सग्गो - काया का व्युत्सर्ग-त्याग, परिकित्तिओ - परिकीर्तत-कहा गया है। भावार्थ - शय्या पर, आसन पर अथवा खड़े-खड़े जो साधु अन्य सब प्रवृत्तियों को छोड़ देता है अर्थात् हिलता-डुलता नहीं, वह कायव्युत्सर्ग नाम का छठा तप कहा गया है। तपाचरण का फल एयं तवं तु दुविहं, जे सम्मं आयरे मुणी। जो खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए॥३७॥ कठिन शब्दार्थ - आयरे - आचरण करता है, खिप्पं - शीघ्र, सव्वसंसारा - समस्त संसार से, विप्पमुच्चइ - मुक्त हो जाता है, पंडिए - पंडित। भावार्थ - इन बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप का जो मुनि सम्यक् प्रकार से . आचरण करता है वह पंडित साधु शीघ्र ही समस्त संसार से विप्रमुक्त-छूट जाता है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - ‘पण्डित' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है - 'पण्डा - हिताहित विवेकिनी बुद्धिः आचारवती च बुद्धिः संजाता यस्य स पण्डितः।' अर्थात् - हिताहित सोचने की बुद्धि तथा अठारह पाप त्यांग रूप आचरण से युक्त बुद्धि जिसे पैदा हो गई है उसे 'पण्डित' कहते हैं। चौथा गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि और पंचम गुणस्थानवर्ती देशविरत सम्यग्दृष्टि पाप से डरते तो हैं किन्तु पापों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते। इन्हें क्रमशः बाल और बाल पण्डित कहते हैं। छठे गुणस्थानवर्ती को पण्डित कहते हैं। उसे सर्व विरति भी कहते हैं। वह पापों से डरता है अतएव पापों का सर्वथा त्याग कर देता है। ‘पापों से डरने वाला पण्डित है' यह व्याख्या अधूरी है। क्योंकि चौथा और पांचवाँ गुणस्थानवर्ती भी पापों से डरता तो है किन्तु वह छोड़ नहीं सकता। पण्डित शब्द की पूरी व्याख्या यह है कि - जो पाप कर्मों से डरता है और सभी (अठारह ही) पाप कर्मों का त्याग कर देता है वह पण्डित कहलाता है। ऐसा पण्डित मुनि होता है। सारांश है - "पाप नहीं करे सो पण्डित।" ॥ इति तपोमार्ग गति नामक तीसवाँ अध्ययन समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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