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________________ तपोमार्ग - व्युत्सर्ग भावार्थ वेयावच्च-वैयावृत्य करने के योग्य आचार्यादिक अर्थात् आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शिष्य, साधर्मिक, कुल, गण और संघ, इन दस स्थानों की यथास्थामयथाशक्ति शारीरिक सेवा - भक्ति करना उसे वैयावृत्य कहा है। स्वाध्याय वायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियट्टणा । अणुप्पेहा धम्मकहा, सज्झाओ पंचहा भवे ॥३४॥ • - Jain Education International - वायणा कठिन शब्दार्थ अणुप्पेहा - अनुप्रेक्षा, धम्मकहा - भावार्थ - वाचना ( गुरु से सूत्र - अर्थ की वाचणी लेना) और पृच्छना ( संशय की निवृत्ति के लिए पूछना या पहले सीखे हुए सूत्रादि ज्ञान में शंका होने पर प्रश्न करना) इसी प्रकार परिवर्त्तना (परावर्तना-पढ़े हुए ज्ञान की पुनरावृत्ति करना) अनुप्रेक्षा (बारबार चिन्तन मनन करना) धर्मकथा (धर्मोपदेश देना), ये पाँच भेद स्वाध्याय तप के होते हैं । ध्यान अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, झाएज्जा सुसमाहिए। धम्म- सुक्काई झाणाई, झाणं तं तु बुहा वए ॥ ३५ ॥ कठिन शब्दार्थ - अट्टरुद्दाणि - आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान को, वज्जित्ता झाएज्जा : ध्यावे, सुसमाहिए - सुसमाधिवंत, धम्म सुक्काई झाणाई शुक्लध्यान, बुहा- बुध ज्ञानीजन, वए - कहते हैं। भावार्थ - सुसमाधिवंत साधु, आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़ कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान, इन दो ध्यानों को ध्यावे, उसे बुध-तत्त्वज्ञ पुरुष ध्यान कहते हैं । व्युत्सर्ग - वाचना, पुच्छणा पृच्छना, परिणा धर्मकथा | - सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू ण वावरे । कायस्स विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकित्तिओ ॥ ३६ ॥ 00000000000000 For Personal & Private Use Only २४७ - - परिवर्त्तना, छोड़कर, धर्मध्यान और www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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