________________
२४६
उत्तराध्ययन सूत्र - तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - पायच्छित्तं - प्रायश्चित्त, विणओ - विनय, वेयावच्चं - वैयावृत्य, सज्झाओ - स्वाध्याय, झाणं - ध्यान, विउस्सग्गो - व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग)।
भावार्थ - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग), यह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है।
प्रायश्चित्त के भेद आलोयणारिहाइयं, पायच्छित्तं तु दसविहं। जं भिक्खू वहइ सम्मं, पायच्छित्तं तमाहियं ॥३१॥
कठिन शब्दार्थ - आलोयणारिह - आलोचनाह, वहइ - वहन-सेवा करता है, तं - उसे, आहियं - कहा है।
भावार्थ - आलोचनार्ह - आलोचना करने के योग्य प्रायश्चित्त दस प्रकार का है जिसका साधु सम्यक् प्रकार से वहन (सेवन) करता है, उसे प्रायश्चित्त कहा है।
विनय का स्वरूप अन्भुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं। गुरुभत्ति-भावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ॥३२॥
कठिन शब्दार्थ- अब्भुट्ठाणं - अभ्युत्थान, अंजलिकरणं - अञ्जलिकरण, आसणदायणंआसन देना, गुरुभत्ति भावसुस्सूसा - गुरु के प्रति भक्तिभाव और उनकी शुश्रूषा करना।
भावार्थ - अभ्युत्थान - गुरु महाराज आदि को आते देख कर खड़ा होना, अञ्जलिकरणहाथ जोड़ना, उन्हें आसन देना, गुरुजनों की भक्ति करना और भावपूर्वक (श्रद्धापूर्वक) उनकी सेवा शुश्रूषा करना, यह विनय कहा गया है।
. वैयावृत्य आयरियमाइए, वेयावच्चम्मि दसविहे।' आसेवणं जहाथाम, वेयावच्चं तमाहियं॥३३॥
कठिन शब्दार्थ - आयरियमाइए - आचार्यादिक, आसेवणं - सेवा-शुश्रूषा करना, जहाथामं - यथास्थाम - यथाशक्ति।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org