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उत्तराध्ययन सूत्र - इकत्तीसवाँ अध्ययन
पहला बोल
एगओ विरइं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं ।
असंजमे णियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं ॥ २ ॥
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कठिन शब्दार्थ - एगओ - एक से, विरइं विरति - निवृत्ति, कुज्जा करे, पवत्तणं
प्रवृत्ति, असंजमे - असंयम से, णियत्तिं निवृत्ति करे, संजमे - संयम से ।
भावार्थ एक से विरति - निवृत्ति
से निवृत्ति करे और संयम में प्रवर्तन प्रवृत्ति करे ।
विवेचन - चरणविधि का प्रथम बोल है
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असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति । हिंसा, असत्य आदि असंयम कारक बातों से निवृत्ति और अहिंसा, सत्य आदि संयम कारक बातों में प्रवृत्ति ही चरणविधि है ।
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करे और एक ओर प्रवर्तन प्रवृत्ति करे अर्थात् असंयम
दूसरा बोल
रागदोसे य दो पावे, पावकम्म
- पवत्तणे ।
जे भिक्खू भइ णिच्चं, से ण अच्छइ मंडले ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - पावकम्मपवत्तणे
पाप कर्मों के प्रवर्तक होने से, रुंभइ निरोध करता - रोकता है, णिच्चं नित्य, से- वह, ण अच्छइ - परिभ्रमण नहीं करता, मंडले मण्डल - संसार में।
भावार्थ - पाप कर्म में प्रवृत्ति कराने वाले राग और द्वेष ये दो पाप हैं, जो साधु सदा इन्हें रोकता है, वह मण्डल (संसार) में परिभ्रमण नहीं करता है। विवेचन - पापकर्म बंध के प्रमुख कारण हैं। वीतरागता में प्रवृत्ति चारित्रविधि है ।
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राग और द्वेष । राग-द्वेष से निवृत्ति और
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तीसरा बोल
दंडाणं गारवाणं च, सल्लाणं च तियं तियं ।
जे भिक्खू चयइ णिच्चं, से ण अच्छइ मंडले ॥ ४ ॥
कठिन शब्दार्थ - दंडाणं दण्डों, गारवाणं - गारवों-गौरवों, सल्लाणं - शल्यों,
तिथं - तीन, चयइ
त्याग करता है।
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