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तपोमार्ग - कायक्लेश
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रसपरित्याग खीर-दहि-सप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं। परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रसविवज्जणं॥२६॥
कठिन शब्दार्थ - खीर - क्षीर-दूध, दहि - दधि-दही, सप्पिं - सर्पिष-घी, आई - आदि, पणीयं - प्रणीत-पौष्टिक-बलवर्द्धक, पाणभोयणं - पान-पेयपदार्थ और भोजन, परिवज्जणं - परित्याग करना, रसाणं - रसों का, भणियं - कहा गया है, रसविवज्जणं - रस परित्याग रूप। ___ भावार्थ - दूध, दही, घी आदि और गरिष्ठ आहार-पानी रूप रसों का परिवर्जन-त्याग करना, रसविवर्जन ‘रसपरित्याग' नाम का तप कहा गया है। . विवेचन - रसपरित्याग में प्रणीत तथा रसवर्द्धक पेय और भोजन का त्याग अनिवार्य है। इस तप का मुख्य प्रयोजन स्वाद-विजय है। इस तप से इन्द्रिय निग्रह, कामोत्तेजना की प्रशान्ति, संतोष भावना एवं स्वादिष्ट पदार्थों से विरक्ति होती है।
कायक्लेश .. ठाणा वीरासणाइया, जीवस्स उ सुहावहा।
उग्गा जहा धरिज्जंति, कायकिलेसं तमाहियं ॥२७॥ ____ कठिन शब्दार्थ - ठाणा - स्थान, वीरासणाइया - वीरासन आदि आसन और उपलक्षण से लोच आदि, जीवस्स - जीव के, सुहावहा - सुखदायक, उग्गा - उग्र-उत्कट, धरिज्जंतिधारण किए जाते हैं, कायकिलेसं - कायक्लेश, तं - उन्हें, आहियं - कहा गया है।
भावार्थ - जीव के लिए भविष्य में सुखकारी उग्र, कठोर, वीरासन आदि शब्द से केश लोच, गोदोहिक आसन आदि लिये जाते हैं। स्थान जिस प्रकार सेवन किये जाते हैं वह कायक्लेश नाम का तप कहा गया है।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में कायक्लेश का आशय है कि काया को अप्रमत्त रखने, शरीर को साधने, कसने, अनुशासित और संयत रखने के लिए स्वेच्छा से बिना ग्लानि के वीरासन आदि आसनों, कायोत्सर्ग (स्थान) तथा लोच, आतापना आदि का अभ्यास करना। औपपातिक सूत्र में कायक्लेश के १३ भेद इस प्रकार बताये गये हैं।
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