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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - तीसवाँ अध्ययन ५. उद्गृहीता एषणा - भोजन करने के समय भोजन करने वाले व्यक्ति को परोसने के लिए चमचा शकोरा आदि द्वारा जो खाद्य सामग्री बाहर निकाल कर रख ली गयी है उसको लेना । ६. प्रगृहीता एषणा भोजन की इच्छा वाले को देने के लिए उद्यत हुए दाता ने जो कुछ अपने हाथ में भोजन सामग्री ले रखी हो उसको ही लेना । ७. उज्झितधर्मा एषणा निस्सार होने के कारण जिसको कोई अन्य याचक या भिखारी भी नहीं चाहते हैं ऐसे बाहर फेंकने योग्य आहार को लेना । उसे उज्झित धर्मा एषणा कहते हैं। ( आचाराङ्ग २ अध्ययन १ ) इस गाथा में गोचराग्र शब्द दिया है जिसका अर्थ इस प्रकार है - मुनि की वृत्ति को मधुकरीवृत्ति, भ्रमरवृत्ति - भिक्षाचर्या, गोचरी आदि शब्दों से कहा जाता है । इन सब में गोचरी शब्द विशेष प्रचलित है। उसका शब्दार्थ है 'गौरिव चरति इति गोचरी' अर्थात् गाय के समान जिसकी वृत्ति हो, उसे गोचरी कहते हैं । यहाँ गो शब्द जाति वाचक है अर्थात् पशुओं के चरने (खाने) के समान जिनकी वृत्ति हो । गो शब्द से गाय, बैल, भैंस, गधा आदि सभी शाकाहारी पशुओं का ग्रहण है । गधा भी गायवत् एक जगह पूरा नहीं उखाड़ कर अनेक जगह से थोड़ा-थोड़ा घास चरता है, गो शब्द से उसका भी समावेश हो जाता है। जैसे सूयगडांग सूत्र उ० १ अ० ६ में 'सीहोमियाणं' कह कर मृग शब्द से सभी पशुओं का ग्रहण किया है। वैसे ही यहां पर गो शब्द से सभी शाकाहारी पशुओं का ग्रहण समझना चाहिए। ऐसे 'महुगारसमा' में मधुकर शब्द से मात्र भ्रमर व मधुमक्खी को नहीं समझ कर फूलों से रस लेने वाले सभी कीटों का ग्रहण समझना । मुनि भी गृहस्थ के घर से उतने ही परिमाण में थोड़ा-थोड़ा आहार लेते हैं जिससे गृहस्थ को दुबारा रसोई बनाना न पड़े। गोचरी शब्द का इतने अर्थ में ही मुनि की वृत्ति के साथ उपमा है क्योंकि गाय तो एषणीय अनेषंणीय प्रासुक अप्रासुक समझती नहीं है । यथाकथंचित् रूप से घास खाती रहती है। किन्तु मुनि तो उद्गम के १६, उत्पादन के १६ और एषणा के १०, इन ४२ दोषों को टाल कर प्रासुक और एषणीय आहार को लेते हैं। इसलिए इसको 'गोरा' कहते हैं। यहाँ 'अग्र' शब्द का अर्थ 'प्रधान' है। अर्थात् सब प्रकार की गोचरियों में प्रधान होने से इसे 'गोरा' कहते हैं । २४२ Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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