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उत्तराध्ययन सूत्र - तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
शास्त्रसम्मत रीति के अनुसार आसन विशेष से बैठना कायक्लेश नाम का तप है। इसके
तेरह भेद हैं -
१. ठाणट्ठिइए (स्थानस्थितिक) - कायोत्सर्ग करके निश्चल बैठना ठाणट्ठिइए कहलाता है।
२. ठाणाइए (स्थानातिग) - एक स्थान पर निश्चल बैठकर कायोत्सर्ग करना। . . ३. उक्कुड्डु आसणिए - उत्कुटुक आसन से बैठना।
४. पडिमट्ठाई (प्रतिमास्थायी) - एकमासिकी द्विमासिकी आदि प्रतिमा (पडिमा) अंगीकार करके कायोत्सर्ग करना।
५. वीरासणिए (वीरासनिक) - कुर्सी पर बैठ कर दोनों पैरों को नीचे लटका कर बैठे हुए पुरुष के नीचे से कुर्सी निकाल लेने पर जो अवस्था बनती है उस आसन से बैठ कर कायोत्सर्ग करना वीरासनिक कायाक्लेश है।
६. नेसज्जिए (नैषधिक) - दोनों कूल्हों के बल भूमि पर बैठना। ७. दंडायए (दण्डायतिक) - दण्ड की तरह लम्बा लेट कर कायोत्सर्ग करना।
८. लगण्डशायी - टेढ़ी लकड़ी की तरह लेट कर कायोत्सर्ग करना। इस आसन में दोनों एड़ियाँ और सिर ही भूमि को छूने चाहिए बाकी सारा शरीर धनुषाकार भूमि से उठा हुआ रहना चाहिए अथवा सिर्फ पीठ ही भूमि पर लगी रहनी चाहिए शेष सारा शरीर भूमि से उठा रहना चाहिए।
६. आयावए (आतापक) - शीत आदि की आतापना लेने वाला। निष्पन्न, अनिष्पन्न और ऊर्ध्वस्थित के भेद से आतापना के तीन भेद हैं। निष्पन्न आतापना के भी तीन भेद हैं - अधोमुखशायिता, पार्श्वशायिता, उत्तानशायिता। अनिष्पन्न आतापना के तीन भेद हैं - गोदोहिका, उत्कुटुकासनता, पर्यङ्कासनता। ऊर्ध्वस्थित आतापना के भी तीन भेद हैं - हस्तिशोण्डिका, एकपादिका, समपादिका। इन तीन आतापनाओं के भी उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद और हो जाते हैं।
१०. अवाउडए (अप्रावृतक) - बिना छत के स्थान पर कायोत्सर्ग आदि करने वाला। ११. अकण्डूयक - कायोत्सर्ग में खुजली न खुजाने वाला। १२. अनिष्ठीवक - कायोत्सर्ग के समय थूकना आदि क्रिया न करने वाला।
१३. धुयकेसमंसुलोम (धुतकेशश्मनुरोम) - जिसके दाढ़ी, मूंछ आदि के बाल बढ़े हुए हों अर्थात् जो अपने शरीर के किसी भी अंग की विभूषा न करता हो।
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