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. सम्यक्त्व पराक्रम - उपसंहार
२२६ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 उसे अस्पर्शमानगति ही कहा जाता है। जैसे किसी व्यक्ति के द्वारा बीच में नहीं रुकने पर उसके लिए ऐसा कहा जाता है कि - इस व्यक्ति ने अमुक ग्राम या नगर का स्पर्श नहीं किया। उस ग्राम के मार्ग से निकलते हुए भी वहाँ नहीं करने से उसे स्पर्श नहीं माना जाता है।
- 'अपनी अवगाहना जितने ही असंख्याता आकाश प्रदेशों का स्पर्श करते हुए आगे-आगे के आकाश प्रदेशों में जाने रूप गति करना अस्पर्शमान गति है।' - ऐसा अर्थ विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रंथों में किया गया है।
उपसंहार एस खलु सम्मत्तपरक्कमस्स अज्झयणस्स अट्टे समणेणं भगवया महावीरेणं आघविए पण्णविए परूविए दंसिए जिंदसिए उवदंसिए॥७४॥ त्ति बेमि॥ ..
कठिन शब्दार्थ - सम्मत्तपरक्कमस्स - सम्यक्त्व पराक्रम नाम के, अज्झयणस्स - अध्ययन का, आघविए - आख्यायित-प्रतिपादित किया है, पण्णविए - प्रज्ञापित किया है, परूविए - 'प्ररूपित किया है, दंसिए - दिखलाया है, णिदंसिए - दृष्टांतों के साथ वर्णित किया है, उवदंसिए - उपदेश दिया है।
भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू! निश्चय ही इस सम्यक्त्व पराक्रम नाम के अध्ययन का यह अर्थ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सामान्य विशेष रूप से कहा है, प्रज्ञापित - विशेष रूप से इसका हेतु-फल आदि बताया है, प्ररूपित - स्वरूप का वर्णन किया है, दर्शित - अनेक भेदों का दिग्दर्शन कराया है, निदर्शित - दृष्टांत द्वारा समझाया है, उपदर्शित - उपसंहार द्वारा बताया है। ऐसा मैं कहता हूँ।
॥ इतिसम्यक्त्व पराक्रम नामक उनतीसवां अध्ययन समाप्त॥
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