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उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन
इस कर्म का उदय तब ही होता है जब जीव को नया जन्म लेने के लिए विषम श्रेणी में रहे हुए जन्म स्थान के विग्रह गति - मोड़ वाली गति से गमन करना पड़ता है। समश्रेणि से गमन करते समय आनुपूर्वी नाम कर्म उदय की आवश्यकता ही नहीं है। यह सत्ता में पड़ा रहता है। प्रश्न - उपयोग कितने हैं और केवली में कितने उपयोग पाये जाते हैं?
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५ ज्ञान,
उत्तर
उपयोग बारह हैं यथा ३ अज्ञान, ४ दर्शन । इनमें से ५ ज्ञान, १३ अज्ञान को साकारोपयोग - विशेषोपयोग कहते हैं। चार दर्शन को अनाकार उपयोग या दर्शनोपयोग - सामान्य उपयोग कहते हैं। इनमें से केवली भगवान् में दो उपयोग पाये जाते हैं अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शन । यहाँ पर 'सागारोवउत्ते सिज्झइ' पाठ से यह स्पष्ट होता है कि केवली भगवान् के साकारोपयोग (केवलज्ञान) और अनाकारोपयोग (केवलदर्शन) क्रमशः प्रयुक्त होते हैं। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी इसी बात की पुष्टि करते हैं । सन्मति तर्क सरीखे महान् ग्रन्थ के रचयिता महान् तार्किक सिद्धसेन दिवाकर की मान्यता है कि - केवली भगवान् के साकारोपयोग और अनाकारोपयोग केवलज्ञान, केवलदर्शन दोनों एक साथ प्रयुक्त होते हैं। उनकी तर्क यह है कि ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय दोनों कर्मों का क्षय एक साथ हो चुका है। अतः उनके क्षय से प्रगट होने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन का प्रयोग भी एक साथ ही होता है।
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जीवों के उपयोग का स्वभाव ही ऐसा है कि वह क्रमशः ही होता है। प्रत्येक वस्तु में दो गुणधर्म होते हैं - सामान्य और विशेष । दोनों गुणधर्म क्रम पूर्वक होने पर भी वस्तु में हर समय दो गुणधर्म ही कहे जाते हैं। जैसे एक पैर को उठाकर एवं दूसरे को नीचे रख कर चलने पर भी दो पांवों से चलना कहा जाता है- वैसे ही यहाँ पर भी केवलज्ञान, केवलदर्शन रूप आत्मा के विशेष एवं सामान्य गुण धर्म साथ में उत्पन्न होने पर भी उनकी प्रवृत्ति क्रमशः होती है। प्रथम समय में केवलज्ञान, दूसरे समय में केवलदर्शन का उपयोग होता है। निष्कर्ष यह है कि तर्क से भी आगम सर्वोपरि है । अतः आगमपक्ष के अनुसार केवलज्ञान केवलदर्शन का प्रयोग क्रमशः ही मानना चाहिये ।
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उपर्युक्त मूल पाठ में आए हुए 'अफुसमाणगई' शब्द का अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है कि - 'एक ही समय में गंतव्य स्थल तक पहुँच जाने से बीच के आकाश प्रदेशों में नहीं रुकते हुए गति करना ।' रुकने में कुछ समय लगता है। अन्य (दूसरे ) समय का स्पर्श नहीं करते हुए गति करना । आकाश प्रदेशों का स्पर्श होने पर भी उन आकाश प्रदेशों में बिना रुके
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