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प्रश्न
क्यों रुक जाता है? आगे अलोक में गमन क्यों नहीं करता?
सम्यक्त्व पराक्रम
अकर्मता
यदि मुक्त आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्व गमन का है तो वह लोकान्त पर जाकर ही
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सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र
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उत्तर ठाणाङ्ग सूत्र के चौथे ठाणे में बतलाया है कि चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक के बाहर नहीं जा सकते हैं।
१. आगे गति का अभाव होने से 1
२. उपग्रह (धर्मास्तिकाय) का अभाव होने से ।
३. लोक के अन्त में परमाणु का अत्यंत रूक्ष हो जाने से ।
४. और अनादि काल का स्वभाव होने से ।
इस प्रकार इन चार कारणों से मुक्त जीव अलोक में नहीं जा सकता इसलिए लोकान्त में जाकर सिद्ध स्थान में ही ठहर जाता है।
प्रश्न जब जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन का है तो फिर नीचा और तिरछा क्यों जाता है?
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उत्तर जीव का स्वभाव तो ऊर्ध्वगमन का ही। किन्तु कर्म उदय सहित जीव जब चारों गति में से किसी एक गति में जाता है तब आनुपूर्वी नाम कर्म के उदय के वश जीव नीचा और तिरछा जाता है।
प्रश्न- आनुपूर्वी नाम कर्म किसको कहते हैं?
उत्तर - जिस प्रकार ऊंट या बैल सीधी सड़क से जाता है । किन्तु जब उसका मालिक अपने खेत आदि में ले जाता है तब ऊंट की नकेल और बैल की नाथ को खींच कर अपने इष्ट स्थान खेत आदि पर ले जाता है इसी प्रकार जीव जब एक भव का आयुष्य पूरा कर दूसरे भव जाता है तब आनुपूर्वी नाम कर्म का उदय होता है। वह उस जीव को खींच कर उस स्थान पर ले जाता है जहाँ का आयुष्य बांध रखा है। यह जीव की परवशता है ।
प्रश्न- आनुपूर्वी नाम कर्म के कितने भेद हैं और वह कब उदय में आता है?
उत्तर
आनुपूर्वी नाम कर्म का उदय तब होता है जब जीव नया जन्म लेने के लिए विग्रह गति (मोड़ वाली गति) द्वारा अपने नये जन्म स्थान पर जाता है। इस कर्म का उदय विग्रह गति में ही होता है। अतः इसका अधिक से अधिक उदय काल तीन या चार समय मात्र का है। इसके चार भेद हैं। नरकानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी । अपने आयुष्य बंध के अनुसार जीव को ये आनुपूर्वियाँ उस उस गति में ले जाती हैं। इसलिए जीव की नीची और तिरछी गति होती है।
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