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उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000GOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOON भावों का क्षय होना २. शरीर का छूट जाना ३. मात्र एक समय में सिद्ध शिला से ऊपर तक ऊर्ध्व गति से गमन ४. लोकान्त में अवस्थिति ।
प्रश्न - मुक्त जीव ऊर्ध्व दिशा में ही गमन क्यों करता है? तथा उस गमन क्रिया के कारण क्या है?
उत्तर - जीव के ऊर्ध्व दिशा में गति करने के कारण ये हैं -
१. पूर्व प्रयोग - 'पूर्व' यानी पहले के प्रयोग से। प्रयोग का यहां अर्थ है 'आवेग'। जिस प्रकार कुम्हार का चाक (पहिया या चक्र) दण्ड को हटा देने के बाद भी कुछ देर तक स्वयं ही घूमता रहता है। उसी प्रकार मुक्त जीव भी पहले के बन्धे हुए कर्मों के छूट जाने के बाद भी उनके निमित्त से प्राप्त आवेग के द्वारा गति करता है। जैसे कुम्हार का चाक।
२. संगरहितता - जीव की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व है किन्तु कर्मों के संघ (सम्बन्ध) के कारण उसे नीची अथवा तिरछी गति भी करनी पड़ती है। कर्मों का संग तथा सम्बन्ध टूटते ही वह अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्व गति से गमन करता है।
३. बन्धन का टूटना - संसारी अवस्था में जीव कर्मों के बन्धन से बन्धा रहता है। . उस बन्धन के टूटते ही जीव अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्व गति से गमन करता है।
४. तथागति परिणाम - जीव की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व ही है अर्थात् ऊर्ध्व गमन जीव का स्वभाव ही है।
जीव के ऊर्ध्व गमन स्वभाव को समझाने के लिए ज्ञाता सूत्र के सातवें अध्ययन में तुम्बे का दृष्टान्त दिया गया है। जिस प्रकार सूखे तुम्बे पर डोरी लपेट कर और उस पर आठ बार मिट्टी का लेप कर उसे गहरे पानी में छोड़ दिया जाय तो वह भारी होने के कारण प्रानी के तल में पहुंच जाता है किन्तु ज्यों-ज्यों मिट्टी का लेप गलता जाता है त्यों-त्यों वह तुम्बा हलका होकर ऊपर उठने लगता है। सब लेप गल जाने पर वह सीधा उठ कर पानी की सतह पर आ जाता है इसी प्रकार कर्मों से मुक्त आत्मा भी कर्मबन्ध के टूटते ही ऊर्ध्वगमन करता है।
दूसरा दृष्टान्त अग्निशिखा का दिया जाता है - अग्निशिखा का स्वभाव ऊर्ध्व गमन है।. उसी प्रकार मुक्त आत्मा का स्वभाव भी ऊर्ध्व गमन है।
तीसरा दृष्टान्त एरण्ड के बीज का दिया जाता है। जैसे ही एरण्ड के बीज पर लगा हुआ फल का आवरण सूखने पर फट जाता है तो बीज तुरन्त ही उछल कर ऊपर को जाता है उसी प्रकार कर्म मुक्त आत्मा भी ऊपर की ओर जाती है।
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