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________________ सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - अकर्मता २२५ योगों को उत्पन्न करने वाली शक्ति का निरोध किया जाता है, फिर सूक्ष्म योगों की उत्पादक शक्ति को रोका जाता है। ऐसा ‘खवगसेढी' ग्रंथ में 'शंका-समाधान' के रूप में करके बताया गया है। ८. अकर्मता _ तओ ओरालियतेयकम्माइं च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उड्ढे एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वायइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ॥७३॥ कठिन शब्दार्थ - ओरालियतेयकम्माई - औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर को, विप्पजहणाहिं - सर्वथा छोड़ने योग्य, उज्जुसेढीपत्ते - ऋजुश्रेणी को प्राप्त, एगसमएणं - एक समय में, अफुसमाणगई - अस्पृशद्गति रूप, उड़े - ऊंची, अविग्गहेणं - अविग्रह गति से, तत्थ - वहां, गंता - जाकर, सागारोवउत्ते - साकारोपयुक्त। ___ भावार्थ - वेदनीयादि चार अघाती कर्मों का क्षय कर देने के बाद औदारिक, तैजस् और कार्मणः इन सभी शरीरों को सभी प्रकार की सर्वथा छोड़ने योग्य सब विधि पूर्वक छोड़ कर ऋजुश्रेणी को प्राप्त हुआ अस्पर्शमानगति (जितने आकाश प्रदेशों में जीव रहा हुआ है उनके अतिरिक्त अन्य आकाश प्रदेशों को स्पर्श न करता हुआ) जीव एक समय वाली ऊँची अविग्रह गति से वहाँ मोक्ष में चला जाता है और वहाँ जा कर सिद्ध हो जाता है, बुद्ध हो जाता है, समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है। सब प्रकार की कर्माग्नि को सर्वथा बुझा कर शान्त हो जाता है। सभी दुःखों का अंत कर देता है। विवेचन - ऊपर गाथा में बताया गया है कि जीव ऊर्ध्वलोक में लोकान्त में जाकर सिद्ध हो जाता है। यहाँ प्रश्न होता है कि जीव लोकान्त तक कैसे जाता है? . उत्तर - लोक का अन्तिम भाग जहाँ से अलोकाकाश का प्रारम्भ होता है। लोक के उस अंतिम भाग के स्थान का नाम सिद्धिगति या सिद्धालय है। इस स्थान पर जीव ऊर्ध्वगति से गमन करता हुआ बिना मोड़ लिये सरल सीधी रेखा में गमन करता हुआ अपने देह त्याग के स्थान से एक समय मात्र में सिद्ध शिला से भी ऊपर पहुँच कर अवस्थित हो जाता है। जीव की वह सर्व कर्म विमुक्त दशा सिद्ध अवस्था अथवा सिद्धि गति कहलाती है। सब कर्मों का बन्धन टूटते ही जीव में चार बातें घटित होती है - १. औपशमिक आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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