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तवमग्गं णामं तीसइमं अज्झयणं
तपोमार्ग नामक तीसवाँ अध्ययन सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र की तरह सम्यक्तप को भी उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन में मोक्ष प्राप्ति का उपाय बतलाया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में तप के बारह भेदों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है -
तप का प्रयोजन जहा उ पावगं कम्मं, राग-दोस समज्जियं। . . खवेइ तवसा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण॥१॥
कठिन शब्दार्थ - पावगं कम्मं - पापकर्म को, राग-दोस समज्जियं - रागद्वेष समर्जितरागद्वेष से उपार्जित किये हुए, खवेइ - क्षय कर देता है, तवसा - तप से, तं - उसे, एगग्गमणो - एकाग्रचित्त होकर, सुण - सुनो।
भावार्थ - राग-द्वेष से उपार्जित हुए पाप कर्म को साधु जिस प्रकार तप के द्वारा क्षय कर देता है, उसे एकाग्र चित्त से सुनो।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में तपश्चर्या का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि जितने भी पापकर्म हैं उनके बंध के मुख्य कारण रागद्वेष हैं। रागद्वेष से संचित किये हुए पाप कर्मों का क्षय
तप के द्वारा होता है। . पाणिवह-मुसावाया, अदत्तमेहुण-परिग्गहाविरओ। ,
राइभोयण-विरओ, जीवो हवइ अणासवो॥२॥ .
कठिन शब्दार्थ - पाणिवह - प्राणिवध-हिंसा, मुसावाया - मृषावाद, अदत्त - अदत्तादान, मेहुण - मैथुन, परिग्गहा - परिग्रह, विरओ - विरत, राइभोयण-विरओ - रात्रि भोजन से विरत, अणासवो - अनास्रव - आस्रव रहित।
भावार्थ - प्राणिवध - जीवहिंसा, मृषावाद - झूठ बोलना, अदत्तादान - बिना दी हुई वस्तु लेना, मैथुन - कुशील सेवन, परिग्रह-धन धान्यादि का ममत्व, इन पांच पापों से एवं रात्रिभोजन से विरत (निवृत्त) हुआ जीव आस्रव रहित होता है।
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