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________________ २१० . . . उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ५५ कायगुप्तता काय-गुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कायगुप्तता - काय-गुप्ति का पालन करने से जीव को क्या लाभ होता है? काय-गुत्तयाए संवरं जणयइ, संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवणिरोहं करेइ ॥५५॥ कठिन शब्दार्थ - कायगुत्तयाए - कायगुप्ति से, संवरं - संवर की, पावासवणिरोह - पापासव का निरोध। भावार्थ - उत्तर - कायगुप्तता - कायगुप्ति से संवर की प्राप्ति होती है फिर संवर से कायगुप्त बना हुआ जीव पाप आम्रवों का निरोध कर देता है। ६. मन समाधारणता .. मण-समाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मनसमाधारणता (आगम के अनुसार मन की प्रवृत्ति करने) . ' से जीव को क्या लाभ होता है? ____ मण-समाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ, एगग्गं जणइत्ता णाणपज्जवे जणयइ णाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ मिच्छत्तं च णिज्जरेइ॥५६॥ . . कठिन शब्दार्थ - मणसमाहारणयाए - मन समाधारणता से, एगग्गं - एकाग्रता, णाणपज्जवे - ज्ञान पर्यवों को, सम्मत्तं - सम्यक्त्व की, विसोहेइ - विशुद्धि करता है, मिच्छत्तं - मिथ्यात्व की, णिज्जरेइ - निर्जरा करता है। भावार्थ - उत्तर - मनसमाधारणता से अर्थात् संकल्प-विकल्पों से हटा कर स्वाध्यायादि उत्तम कार्यों में मन को लगाने से मन एकाग्र होता है। मन एकाग्र होने पर ज्ञान की पर्यायों की प्राप्ति होती है। ज्ञान पर्यायों की प्राप्ति होने पर जीव सम्यक्त्व की विशुद्धि करता है और मिथ्यात्व की निर्जरा करता है। विवेचन - शास्त्रोक्त भावों के चिंतन में मन को सम्यक् प्रकार से व्यवस्थित, स्थापित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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