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सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - सहाय प्रत्याख्यान १६६ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - उत्तर - मन-वचन-काया रूप तीनों योगों की प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान-निरोध करने से अयोगी अवस्था अर्थात् शैलेशी भाव को प्राप्त होता है। अयोगी जीव के नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता और पहले बंधे हुए अघाती कर्मों की निर्जरा होती है।
३८. शरीर-प्रत्याख्यान सरीर-पच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! औदारिकादि शरीरों का प्रत्याख्यान-त्याग करने से जीव को क्या लाभ होता है?
सरीर-पच्चक्खाणेणं सिद्धाइसयगुणत्तणं णिव्वत्तेइ, सिद्धाइसयगुणसंपण्णे य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ॥३८॥ - कठिन शब्दार्थ - सरीरपच्चक्खाणेणं - शरीर के प्रत्याख्यान से, सिद्धाइसयगुणत्तणंसिद्धों के अतिशय गुणत्व का, णिव्वत्तेइ - सम्पादन कर लेता है, लोगग्गमुवगए - लोक के
अग्रभाग में पहुंच कर, परमसुही - परमसुखी। . भावार्थ - उत्तर - औदारिकादि शरीरों का प्रत्याख्यान - त्याग करने से सिद्धों के अतिशय गुण प्रकट होते हैं और सिद्धों के अतिशय गुण सम्पन्न जीव लोकाग्र में गया हुआ जीव । परम सुखी हो जाता है अर्थात् मोक्ष में चला जाता है।
विवेचन - समवाय सूत्र ३१ वें समवाय में बतलाया गया है कि - आठ कर्मों के क्षय से सिद्ध भगवान् में ३१ गुण प्रकट होते हैं उनको सिद्धातिशय गुण कहते हैं।
३१. सहाय प्रत्याख्यान सहायपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सहायता का प्रत्याख्यान-त्याग करने से जीव को क्या लाभ होता है?
सहायपच्चक्खाणेणं एगीभावं जणयइ, एगीभावभूए य णं जीवे एगग्गं भावेमाणे अप्पसहे अप्पझंझे अप्पकलहे अप्पकसाए अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए यावि भवइ॥३६॥
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